Friday, June 15, 2012

तांत्याटोपे



1857 के आन्दोलन के अग्रदूत एवं स्वाधीनता आन्दोलन एक महान सेनानायक थे तांत्याटोपे। 18 अप्रैल 1859 को इस महान स्वतंत्रता सेनानी को मध्य प्रदेश के शिवपुरी में अंग्रेजी हुकूमत से बगावत के कारण फांसी पर लटका दिया गया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में तांत्याटोपे की भूमिका अहम् एवं प्रेरणादायक थी। तांत्याटोपे का जन्म पटोदा जिले के येवला गावं में हुआ था। सन 1857 की विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ परन्तु इसकी चिंगारी तुरंत सारे देश में फ़ैल गई। इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बहुत ही जबरदस्त संघर्ष किया गया इस संग्राम की गाथा क्रांतिकारियों खून से, त्याग से, और बलिदान से लिखी गई। इस रक्तरंजित गौरवशाली इतिहास में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, मुग़ल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफ़र, और 80 वर्ष के महान क्रन्तिकारी वीर कुंवर सिंह ने जब अपनी सहादत दे दी तब से 1 वर्ष तक इस आन्दोलन को चलने वाले महानायक थे तांत्याटोपे।

सन् 1857 के विद्रोह की लपटें जब कानपूर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु 16-जुलाई-1857 को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।

कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था।

झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। दुर्भाग्यवस फूलबाग़ के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई। इसके बाद लगभग सभी जगहों पर आन्दोलन कुचला जा चूका था, परन्तु तांत्या ने हार नही मानी और वो अब अकेले होने के कारण दक्षिण भारत में राजाओं से मदद मांगने गए परन्तु वहां से भी उन्हें बैरंग खाली आना पड़ा। इसके बाद तांत्या राजस्थान गए परन्तु वहां भी इनके हाँथ असफलता ही हाँथ लगी। सब जगह से निरास होने के बाद तात्या पाड़ौन में जगलों में अपने मित्र मानसिंह की शरण में चले गए।

यहां तात्या के अंतर्मन में विद्रोह की जो चिंगारियां फूट रही थीं, उन पर पानी फिर गया। जब फिरंगी सेनानायक तात्याटोपे को मारने अथवा गिरफ्तार करने में सफल न हो सके तो उन्होंने छल-कपट का रास्ता अपनाया। मानसिंह को अंग्रेजों ने उसका राज्य वापिस लौटाने का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में ले लिया। ‘1857 के गद्र का इतिहास’ में इस घटना के बारे में शिवनारायण द्विवेदी ने लिखा है, ‘मानसिंह ने मित्रता से काम नहीं लिया। तात्या को पकड़वाने के लिये वह अंग्रेज सेनापति मीड़ से सलाह करने लगा। सेनापति मीड़ ने मानसिंह की जान बचाने और उसका जब्त राज्य वापिस दिलाने का वादा किया।

जब तांत्या के पाड़ौन के जंगल में गए तब मान सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। तांत्या अपने पुराने साथियों से संपर्क में थे, उन्होंने ने उन्हें सन्देश भेजवा दिया की मान सिंह ने आत्मसमर्पण और वो फिलहाल पाड़ौन के जंगल में तो इमाम अली  ने उत्तर दिया की हमसब यानि रावसाहव पेशवा, फिरोजशाह अम्बापानी और करीब 5000 के संख्या में लोग हैं आप आकर सिरोंज के जंगल में मिले, यहीं पर तांत्या धोखे खा गए और उन्होंने पहले मान सिंह से सलाह लेनी की सोंची और अंग्रेजी हुकूमत और अपने गद्दार मित्र मनन सिंह के बिछाये जाल में फंस गए। 7-अप्रैल-1859 को तांत्या को गिरफ्तार किया गया और 8-अप्रैल-1859 को उन्हें शिवपुरी लाया गया।  इसके बाद एक अंग्रेज अधिकारी के बंगले में कोर्ट लगाया गया और तांत्या पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। इतिहास और और इतिहासकारों की माने तो इस पर तांत्या ने जो जवाब दिए वो अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाला था उन्होंने कहा की मैंने किसी भी कीमत पर राज़द्रोह किया ही नही क्योंकि मैं पेशवा यहां के राजा थे और मैं उनका नौकर था, जो कुछ मैनें किया है, उनकी आज्ञा से ही किया है, अतः मैं राजद्रोही नहीं राजभक्त हूं। रणभूमि मे मैने अंग्रेजों से युद्ध किया है।  उस समय मेरी तलवार के सामने जो अंग्रेज आए, उनको मैनें मारा है।

उन्होंने यह भी कहा की मेरी तलवार ने किसी निर्दोष अंग्रेज पुरूष, स्त्री, या अंगेरजी बच्चों को नही मारा नहीं उन्हें सूली पर चढ़ाया है। आखिर में अंग्रेजी हुकूमत ने 18-अप्रैल-1857 को तांत्या को फांसी पर चढाने फरमान सुनाया।  18-अप्रैल-1857 को तांत्या को शाम 5 बजे फांसी पर लटकाया गया, और दुसरे दिन शाम तक महान क्रांतिकारी का पार्थिव शरीर वहीँ नीम के पेड़ पर लटका रहा इसका सिर्फ के मकसद था आगे से कोई भी इस दमनकारी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज़ न उठा सके और कोई हंगामा न खड़ा कर सके। इस महान सेनापति की मृतु के बाद भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम अंत हो गया।

No comments:

Post a Comment