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Tuesday, October 29, 2013

क्या आप जानते है जौहरकुण्ड को ?


ये चित्र 'जौहरकुण्ड' का है....॥

'जौहर' एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनकर हमारी रुह कांप जाती है, परन्तु उसके साथ ही साथ यह शब्द राजस्थानी क्षत्राणियोँ के अभूतपूर्व बलिदान का स्मरण कराता हैँ! जब किसी राजस्थानी राजा के राज्य पर मुस्लिम आक्रमणकारीयोँ का आक्रमण होता तो युध्द मेँ जीत की कोई संम्भावना ना देखकर राजस्थानी क्षत्रिय और क्षत्राणी आत्म समर्पण करने के बजाय लड़कर मरना अपना धर्म समझते थे! क्योकिँ कहा जाता है ना "वीर अपनी मृत्यु स्वयं चुनते है!" इसिलिए राजस्थानी वीर और वीरांगनाए भी आत्मसमर्पण के बजाय साका (साका= केसरिया+जौहर) का मार्ग अपनाते थे! पुरुष (क्षत्रिय) 'केसरिया' वस्त्र धारणा कर प्राणोँ का उत्सर्ग करने हेतु 'रण भूमि' मेँ उतर जाते थे! और राजमहल की महिलाँए (क्षत्रणियाँ) अपनी 'सतीत्व की रक्षा' हेतु अपनी जीवन लीला समाप्त करने हेतु जौहर कर लेती थी!

महिलाँए एसा इसलिए करती थी क्योँकि मुस्लिम आक्रमणकारी युध्द मेँ विजय के पश्चात महिलाओँ के साथ बलात्कार करते थे! अत: क्षत्राणी विरांगनाएँ अपनी अस्मिता व गौरव की रक्षा हेतु जौहर का मार्ग अपनाती थी जिसमेँ वे जौहर कुण्ड मेँ अग्नि प्रज्जवलित कर धधकती अग्नि कुण्ड मेँ कुद कर अपने प्रणोँ की आहुती दे देती थी!! जौहर के मार्ग को एक क्षत्राणी अपना गौरव व अपना अधिकार मानती थी! और यह मार्ग उनके लिए स्वाधिनता व आत्मसम्मान का प्रतिक था! ये जौहर कुण्ड एसी ही हजारोँ वीरांगनाओ के बलिदान का साक्ष्य हैँ!

नमन हे एसी क्षत्राणी विरांगनाओँ को... और गर्व है हमेँ हमारे गौरवपूर्ण इतिहास पर...

गर्व से कहो हम हिन्दु है...॥ जय जय राजस्थान....जय माँ भारती...!!
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ताजमहल उर्फ़ तेजो महल से जुड़े कुछ और रहस्यमय बाते


पढने से पहले इसे शेयर करे फिर आराम से पढ़े :-

ताजमहल उर्फ़ तेजो महल से जुड़े कुछ और रहस्यमय बाते :-

१) क्या आप जानते हैं ताजमहल के अंदर आज भी अनेक कक्ष रहस्यों को दबाये बंद पड़े हैं जिन्हें सरकार ने खुलवाने की जगह उनके दरवाजे हटा के पत्थरों से सील कर दिया...

२) इन कमरों के अंदर क्या हैं ये आप निम्नलिखित शोधो से समझ जायेंगे || सरकार ने किस कदर इस सारे भेद से जनता को गुमराह किया हुआ हैं खुद देख लीजिये...

(क)१९५२ में जब एस.आर .राव पुरात्व अधिकारी थे तब उन्हें ताजमहल की एक दीवार में लम्बी चौड़ी दरार दिखाई दी . मरम्मत के दौरान आसपस की और ईंटे निकलवाने की जरुरत पड़ी , जब ईंटे निकाली गयी तो कक्ष में से अष्ट धातु की मूर्तियाँ दिखाई देने लगी... तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु को ज्ञात करवाने पर निर्णय लिया गया की मूर्तियाँ जहाँ से निकली हैं वो जगह ही बंद करवा दी जाए ||

आपने पिछली पोस्ट में भी "पी .एन.ओक" के द्वारा दिए गए १०८ सबुतो में पढा की :-

"68. स्पष्तः मूल रूप से शाहज़हां के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाजों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाजे के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।"

"69. अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहज़हां के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहज़हां के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुये कमरे आज भी छुपाये हुये हैं। "

और हमारे देश का दुर्भाग्य ये की सरकार ने इस सारे रहस्यों की छानबीन करने की जगह सभी भेदों को दबाने का ही प्रयास किया....
ऐसा क्यों किया होगा ?? इसका कारण तो आप भी जानते हैं....

निष्कर्ष :- तो यही निकलता हैं की ताजमहल के अंदर बहुत रहस्य दबे पदे हैं जिससे हिन्दू जनता को परिचित होना आवश्यक हैं... सरकार ने हिन्दू जनता को सिर्फ धोखे में रखा हुआ हैं आज तक....

अंत में :- सिर्फ ताज ही नहीं अपितु क़ुतुब मीनार ,जामा मस्जिद, लाल किला जैसे कई स्थापित्य हिन्दू राजाओ की इस भव्य भारत को देन हैं | इतिहास को तोड़ मरोड़ के पेश किया गया हैं, पर हमारा फर्ज हैं की जो भी सच जानने पढने को हमे मिलता हैं उसे हम ज्यादा से ज्यादा लोगो तक पहुचाये और अपनी अगली पीढ़ी को हिन्दू होने गर्व वापिस दिलाये ||

जय महाकाल ||
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लालकिला का असली नाम लालकोट है


लालकिला का असली नाम लालकोट है.

अक्सर हमें यह पढाया जाता है कि दिल्ली का लालकिला शाहजहाँ ने बनवाया था| लेकिन यह एक सफ़ेद झूठ है और इतिहासकारों का कहना है की वास्तव में लालकिला पृथ्वीराज ने बारहवीं शताब्दी में पूरा बनवाया था जिसका नाम “लाल कोट “था जिसे तोमर वंश के शासक ‘अंनग पाल’ ने १०६० में बनवाना शुरू किया था |यह जानकर आप ख़ुशी से उछल ही पड़ेंगे कि महाराज अनंगपाल तोमर और कोई नहीं बल्कि महाभारत के अभिमन्यु के वंशज तथा महाराज पृथ्वीराज चौहान के नाना जी थे|

दरअसल शाहजहाँ नमक मुसलमान ने इसे बसाया नहीं बल्कि पूरी तरह से नष्ट करने की असफल कोशिश की थी ताकि, वो उसके द्वारा बनाया साबित हो सके लेकिन सच सामने आ ही जाता है|

इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि तारीखे फिरोजशाही के पृष्ट संख्या 160 (ग्रन्थ ३) में लेखक लिखता है कि सन 1296 के अंत में जब अलाउद्दीन खिलजी अपनी सेना लेकर दिल्ली आया तो वो कुश्क-ए-लाल ( लाल प्रासाद/ महल ) कि ओर बढ़ा और वहां उसने आराम किया| सिर्फ इतना ही नहीं अकबरनामा और अग्निपुराण दोनों ही जगह इस बात के वर्णन हैं कि महाराज अनंगपाल ने ही एक भव्य और आलिशान दिल्ली का निर्माण करवाया था| शाहजहाँ से 250 वर्ष पहले ही 1398 ईस्वी में एक अन्य लंगड़ा जेहादी तैमूरलंग ने भी पुरानी दिल्ली का उल्लेख किया हुआ है (जो कि शाहजहाँ द्वारा बसाई बताई जाती है)| यहाँ तक कि लाल किले के एक खास महल मे सुअर (वराह) के मुँह वाले चार नल अभी भी लगे हुए हैं क्या ये शाहजहाँ के इस्लाम का प्रतीक चिन्ह है या हिंदुत्व के प्रमाण?

साथ ही किले के एक द्वार पर बाहर हाथी की मूर्ति अंकित है क्योंकि राजपूत राजा गजो (हाथियों) के प्रति अपने प्रेम के लिए विख्यात थे जबकि इस्लाम जीवित प्राणी के मूर्ति का विरोध करता है|

साथ ही लालकिला के दीवाने खास मे केसर कुंड नाम से एक कुंड भी बना हुआ है जिसके फर्श पर हिंदुओं मे पूज्य कमल पुष्प अंकित है| साथ ही ध्यान देने योग्य बात यह है कि केसर कुंड एक हिंदू शब्दावली है जो कि हमारे राजाओ द्वारा केसर जल से भरे स्नान कुंड के लिए प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है| मजेदार बात यह है कि मुस्लिमों के प्रिय गुंबद या मीनार का कोई अस्तित्व तक नही है लालकिला के दीवानेखास और दीवानेआम मे| इतना ही नहीं दीवानेखास के ही निकट राज की न्याय तुला अंकित है जो अपनी प्रजा मे से 99 % भाग (हिन्दुओं) को नीच समझने वाला मुगल कभी भी न्याय तुला की कल्पना भी नही कर सकता जबकि, ब्राह्मणों द्वारा उपदेशित राजपूत राजाओ की न्याय तुला चित्र से प्रेरणा लेकर न्याय करना हमारे इतिहास मे प्रसिद्द है|

दीवाने ख़ास और दीवाने आम की मंडप शैली पूरी तरह से 984 ईस्वी के अंबर के भीतरी महल (आमेर/पुराना जयपुर) से मिलती है जो कि राजपूताना शैली मे बना हुई है| आज भी लाल किले से कुछ ही गज की दूरी पर बने हुए देवालय हैं जिनमे से एक लाल जैन मंदिर और दूसरा गौरीशंकार मंदिर है और, दोनो ही गैर मुस्लिम है जो कि शाहजहाँ से कई शताब्दी पहले राजपूत राजाओं के बनवाए हुए है| इन सब से भी सबसे बड़ा प्रमाण और सामान्य ज्ञान की बात यही है कि लाल किले का मुख्य बाजार चाँदनी चौक केवल हिंदुओं से घिरा हुआ है और, समस्त पुरानी दिल्ली मे अधिकतर आबादी हिंदुओं की ही है साथ ही सनलिष्ट और घुमावदार शैली के मकान भी हिंदू शैली के ही है सोचने वाली बात है कि क्या शाहजहाँ जैसा धर्मांध व्यक्ति अपने किले के आसपास अरबी, फ़ारसी, तुर्क, अफ़गानी के बजाए हम हिंदुओं के लिए हिन्दू शैली में मकान बनवा कर हमको अपने पास बसाता? और फिर शाहजहाँ या एक भी इस्लामी शिलालेख मे लाल किले का वर्णन तक नही है|
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Monday, June 17, 2013

Acharya Kanad - Founder of Atomic Theory

Acharya Kanad - Founder of Atomic Theory

Acharya Kanad - Founder of Atomic Theory

As the founder of "Vaisheshik Darshan"- one of six principal philosophies of India - Acharya Kanad was a genius in philosophy. He was the pioneer expounder of realism, law of causation and the atomic theory. He has classified all the objects of creation into nine elements, namely: earth, water, light, wind, ether, time, space, mind and soul.

He says, "Every object of creation is made of atoms which in turn connect with each other to form molecules."

His statement ushered in the Atomic Theory {Conception of Anu (Atom)} for the first time ever in the world, nearly 2500 years before John Dalton. Kanad has also described the dimension and motion of atoms and their chemical reactions with each other. Compared to the world's other scientists, Kanad and other Indian scientists were the global masters of this field.
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Reality of Qutub Minar

Reality of Qutub Minar

Reality of Qutub Minar

क़ुतुब मीनार का सच...

असली नाम: विष्णु स्तंभ, ध्रुव स्तंभ
निर्माता: वराहमिहिर के मार्गदर्शन में बना, सम्राट विक्रमादित्य के शाशन काल के दौरान
असली आयु: २५०० साल से अधिक पुराना.
उद्देश्य: खगोलशास्त्र का अध्ययन.

1191A.D.में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली पर आक्रमण किया, तराइन के मैदान में पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध में गौरी बुरी तरह पराजित हुआ, 1192 में गौरी ने दुबारा आक्रमण में पृथ्वीराज को हरा दिया, कुतुबुद्दीन, गौरी का सेनापति था. 1206 में गौरी ने कुतुबुद्दीन को अपना नायब नियुक्त किया और जब 1206 A.D, में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई tab वह गद्दी पर बैठा, अनेक विरोधियों को समाप्त करने में उसे लाहौर में ही दो वर्ष लग गए.

1210 A.D. लाहौर में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर उसकी मौत हो गयी. अब इतिहास के पन्नों में लिख दिया गया है कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार, कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई.

अब कुछ प्रश्न...
अब कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई, लेकिन कब ?

क्या कुतुबुद्दीन ने अपने राज्य काल 1206 से 1210 मीनार का निर्माण करा सकता था ? जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करने में बिताये और 1210 में भी मरने
के पहले भी वह लाहौर में था ?

कुछ ने लिखा कि इसे 1193AD में बनाना शुरू किया यह भी कि कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं उसके ऊपर तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई और उसके ऊपर कि शेष मंजिलें बाद में बनी. यदि 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम बादशाह गौरी के नाम पर "गौरी मीनार", या ऐसा ही कुछ होता न कि सेनापति कुतुबुद्दीन के नाम पर क़ुतुब मीनार.

उसने लिखवाया कि उस परिसर में बने 27 मंदिरों को गिरा कर उनके मलबे से मीनार बनवाई, अब क्या किसी भवन के मलबे से कोई क़ुतुब मीनार जैसा उत्कृष्ट कलापूर्ण भवन बनाया जा सकता है जिसका हर पत्थर स्थानानुसार अलग अलग नाप का पूर्व निर्धारित होता है ?

कुछ लोगो ने लिखा कि नमाज़ समय अजान देने के लिए यह मीनार बनी पर क्या उतनी ऊंचाई से किसी कि आवाज़ निचे तक आ भी सकती है ?

सच तो यह है की जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है वह मेहरौली कहा जाता है, मेहरौली वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था जो सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक, और खगोलशास्त्री थे उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन के लिए २७ कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था.

इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्म कारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयीं थीं जो नष्ट किये जाने के बाद भी कहीं कहींदिख जाती हैं. कुछ संस्कृत भाषा के अंश दीवारों और बीथिकाओं के स्तंभों पर उकेरे हुए मिल जायेंगे जो मिटाए गए होने के बावजूद पढ़े जा सकते हैं. मीनार, चारों ओर के निर्माण का ही भाग लगता है, अलग से बनवाया हुआ नहीं लगता, इसमे मूल रूप में सात मंजिलें थीं सातवीं मंजिल पर ब्रम्हा जी की हाथ में वेद लिए हुए मूर्ति थी जो तोड़ डाली गयीं थी, छठी मंजिल पर विष्णु जी की मूर्ति के साथ कुछ निर्माण थे. वह भी हटा दिए गए होंगे, अब केवल पाँच मंजिलें ही शेष है.

इसका नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ प्रचलन में थे, इन सब का सबसे बड़ा प्रमाण उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ है जिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख, जिसमे लिखा है की यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है जो सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414 ईसवीं) द्वारा स्थापित किया गया था और यह लौह स्तम्भ आज भी विज्ञानं के लिए आश्चर्य की बात है कि आज तक इसमें जंग नहीं लगा.

उसी महानसम्राट के दरबार में महान गणितज्ञ आर्य भट्ट,खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर, वैद्य राज ब्रम्हगुप्त आदि हुए.

ऐसे राजा के राज्य काल को जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ तो क्या जंगल में अकेला स्तम्भ बना होगा? निश्चय ही आसपास अन्य निर्माण हुए होंगे, जिसमे एक भगवन विष्णु का मंदिर था उसी मंदिर के पार्श्व में विशालस्तम्भ विष्णुध्वज जिसमे सत्ताईस झरोखे जो सत्ताईस नक्षत्रो व खगोलीय अध्ययन के लिए बनाए गए निश्चय ही वराह मिहिर के निर्देशन में बनाये गए.

इस प्रकार कुतब मीनार के निर्माण का श्रेय सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्य कल में खगोल शाष्त्री वराहमिहिर को जाता है.

कुतुबुद्दीन ने सिर्फ इतना किया कि भगवान विष्णु के मंदिर को विध्वंस किया उसे कुवातुल इस्लाम मस्जिद कह दिया, विष्णु ध्वज (स्तम्भ) के हिन्दू संकेतों को छुपाकर उन पर अरबी के शब्द लिखा दिए और क़ुतुब मीनार बन गया.
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Hinduism and Science

Hinduism and Science

Hinduism and Science

Professor Arthur Holmes (1895-1965) geologist, professor at the University of Durham. He writes regarding the age of the earth in his great book, The Age of Earth (1913) as follows:

"Long before it became a scientific aspiration to estimate the age of the earth, many elaborate systems of the world chronology had been devised by the sages of antiquity. The most remarkable of these occult time-scales is that of the ancient Hindus, whose astonishing concept of the Earth's duration has been traced back to Manusmriti, a sacred book."

When the Hindu calculation of the present age of the earth and the expanding universe could make Professor Holmes so astonished, the precision with which the Hindu calculation regarding the age of the entire Universe was made would make any man spellbound.
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स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की कहानी

स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की कहानी

स्वर्ग से पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की कहानी...

गंगा के अवतरण की एक पौराणिक कथा बड़ी प्रचलित है । भगीरथ ने स्वर्ग में बहने वाली गंगा के प्रवाह को पृथ्वी पर लाया । भगीरथ की कथा सभी जानते हैं । एक महाराजा सगर थे । पुराण बताते हैं कि कपिल मुनि के शाप के कारण महाराज सगर के साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गए । ऋषि से पूछा कि उनका उद्धार कैसे होगा ? तो उन्होंने बताया कि स्वर्ग में बहने वाली नदी गंगा है, उसका पानी यहाँ आएगा, उसका स्पर्श अगर इनको होगा तो उनका उद्धार हो जाएगा । सगर महाराज तो चले गए । फिर उनके पुत्र अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या की । लेकिन सफलता नहीं मिली । अंशुमान के पुत्र यानि सगर महाराज के पौत्र भगीरथ थे । उन्होंने तपस्या की और स्वर्ग से गंगा को वे पृथ्वी पर ले आए । कहते हैं कि बीच में शंकर की जटा में गंगा उलझ गई थी । तो वहाँ से इसे निकाला । जन्हु नाम के एक ऋषि की टांग में फँस गई । तो वहाँ सेंध लगाकर उसको बाहर निकाला तबसे गंगा पृथ्वी पर बह रही है ।

पुराण की कथाएँ साधारणतः रुपक कथाएँ होती हैं । इस रूपक कथा का मतलब क्या है ? गंगा स्वर्ग में बहती थी, यानि कहाँ बहती थी ? वह तिब्बत में बहती थी । जैसे आज ‘ब्रह्मपुत्र’ बहता है । आधा ब्रह्मपुत्र यानि करीब ९०० मील वह तिब्बत में बहता है, जिसके पानी का कोई उपयोग नहीं है । बर्फ ही बर्फ है । बाद में असम होकर भारत में आता है । गंगा तो पूरी की पूरी तिब्बत में से बहती होगी । तिब्बत का ही पुराना नाम ‘त्रिविष्टप्’ है जिसका एक अर्थ संस्कृत में, ‘स्वर्ग’ भी होता है । अब सगर के ६० हजार पुत्रों का अर्थ क्या है ? सगर राजा के राज्यकाल में अकाल पड़ा होगा । ऐसा कहते हैं कि जब आकाश में कपिल नक्षत्र का उदय होता है तब अकाल आ जाता है, पानी नहीं बरसता । लोग मरते हैं । उस अकाल में साठ हजार लोग मर गए । राजा प्रजा का पिता होता है । प्रजा का अर्थ समाज भी है । “प्रजा स्यात् सन्ततौ जने” ऐसा शब्दकोश में बताया है । ६०,००० लोग मर गए । भगीरथ ने देखा कि गंगा का जल आएगा कैसे ? तपस्या की । इंजीनियरिंग स्किल या अभियंता की उद्यमशीलता ने एक बिन्दु खोज निकाला । जिसको तोड़ने से गंगा का सारा पानी इस ओर आया । बहुत वेग से आया । कहते हैं शंकर ने जटा में धारण किया । मतलब पहाड़ियों में पानी उलझ गया । उसमें से निकला । पता नहीं कब सगर महाराज हो गए, कब भगीरथ हो गया । लेकिन आज तक जहाँ उत्तरप्रदेश, बिहार में गंगा बहती है वहाँ अकाल नहीं होता ।

रूपक शब्द युग्म
स्वर्ग - त्रिविष्टप् (तिब्बत)
(साठ हज़ार) पुत्र - (साठ हज़ार) प्रजा
(भगीरथ की) तपस्या - (भगीरथ की सतत) उद्यमशीलता
शंकर की जटा - हिमालय की पहाड़ियां
कपिल मुनि - कपिल नक्षत्र
(कपिल मुनि का) शाप - (कपिल नक्षत्र का) प्रभाव
साठ हज़ार पुत्र जलकर भस्म - साठ हज़ार प्रजा की अकाल से मृत्यु

पिछले एक सहस्त्र वर्षों की पराधीनता के कारण हम पौराणिक कथाओं के भाव को नहीं समझ पाए । समय की मांग है कि हम इन कथाओं से सही अर्थ को समझें और भगीरथ के ही तरह अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार समाज कल्याण के लिए सतत् लगे रहें ।
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समय और आकाश (दूरी) की इकाई


समय और आकाश (दूरी) की इकाई

समय और आकाश का हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने बहुत ही सूक्ष्म परिमाण निश्चित किया है |

पाश्चात्य में सेकंड को समय का सबसे सूक्ष्म अंश मन गया है पर हमारे ऋषियों ने त्रुति का परिमाण माना है जो सेकंड का १/३३७५०वां अंश है |

इसी प्रकार पाश्चात्य में लम्बाई/दूरी नापने का सबसे सूक्ष्म परिमाण इंच है पर हमारे ऋषियों ने त्रसरैणु का परिमाण माना है जो इंच का १/३४६५२५वां हिस्सा है |
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Hathor Goddess

Hathor Goddess

 About Hathor Goddess

अत्यन्त प्राचीनकाल से ही मिस्र देश में गाय-बैलों की पूजा होती चली आई है| मिश्रवासियों की प्रसिद्ध आराध्य-देवी `हथोर' गौ ही है| यहां की नील नदी की उपमा दुधारु गाय से दी जाती रही है| नील नदी के तट पर सात प्रकार के देवताओं की मूर्तियां स्थित है| जब इस नदी में बाढ़ आती है, तो इन देवताओं की पूजा की जाती है और गायों का एक विशाल जुलूस निकाल जाता है|

मिश्रवासी `हथोर' गौ के समान `आपिस' बैल की भी पूजा करते है| यहां होता है कि मिश्र की प्राचीन संस्कृति ईसा से लगभग पांच सहस्र वर्ष पूर्व विद्यमान थी तथा यहां गाय-बैलों की पूजा होती थी| मिश्र में गौहत्या पूर्णत: निषिद्ध थी| गौ-हत्यारों को प्राणदण्ड मिलता था| जिस प्रकार हिन्दुओं का विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा गौकी पूंछ पकड़कर वैतरणी पार करती है, उसी प्रकार मिश्रवासियों के धर्मशास्त्र में लिखा है कि मृत प्राणी गौ की पूंछ पकड़कर नील नदी पार करता है| हिरोडोटस लिखता है कि मिश्रवासी बैलों का वध करते थे, किन्तु गौ की हत्या नहीं करते थे| उक्त तथ्यों से जान पड़ता है कि किसी सुदुर अतीतकाल में भारत के ही लोगों ने एशियाई देशों में होते हुए मिश्र तक पहुंचकर वहां अपनी संस्कृति का प्रसार किया था|

इतिहास की आदिम अवस्था में आयों के साम्राज्य का इतना विस्तार था कि कुछ भागों के अतिरिक्त समस्त यूरोप और सम्भवत: उत्तरी रूस का पर्याप्त साम्राज्य तथा एशिया में एशिया माइनर, काकेशिया, मीडिया, पर्शिया, भारत और मध्यवर्ती बेक्टीरिया तक समाविष्ट था| इस प्रकार अन्य देशों की भांति भारत और ईरान के पारस्परिक सम्बन्ध भी आर्यों के समय से ही हैं| `ईरान' शब्द `आर्याना' का अपभ्रंश माना जाता है| विद्धानों के मतानुसार सहस्रों वर्ष पूर्व ईरान भारतीय उपनिवेश ही था| प्राचीन मध्य प्रदेश में रहनेवाले `पर्सु' वंश के लोग बिलोचिस्तान के मार्ग से वर्तमान ईरान की भूमि पर पहुंचे और वहां `परशु' अथवा `पर्शु' नामक देश बसाया|


http://en.wikipedia.org/wiki/Hathor
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Howler Monkey Gods

Howler Monkey Gods

 About Howler Monkey Gods

इस मूर्ति को देख कर भारतीय तुरंत पहचान गए होंगे की यह भगवान हनुमान की हे और यह मूर्ति किसी प्राचीन भारतीय मंदिर की जैसी प्रतीत होती है|

खैर, यह मूर्ति प्राचीन माया सभ्यता की हे, जिसे "Howler" के नाम से जाना जाता था| इसे मध्य अमेरिका के एक गणतंत्र होंडुरास में कोपन में खोजा गया था| यह मूर्ति लगभग 1500 साल पुरानी है|

यह भी दिलचस्प है कि "Howler" को भी पवन भगवान के रूप में जाना जाता था| हिंदू धर्म हनुमान में भी हनुमान को Vayuputra (पवन भगवान के पुत्र) और Pranavayu (जीवन की महत्वपूर्ण हवा) के रूप में जाना जाता है.

एक अन्य मूर्ति जो हनुमान की तरह दिखती है जिसे 'Wilka Huemana' कहा जाता है और 50 फीट लंबी 12 फीट चौड़ी है, ग्वाटेमाला के समीप खोजी गयी है|


http://en.wikipedia.org/wiki/Howler_Monkey_Gods
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Acharya Kapil - Father of Cosmology

Acharya Kapil - Father of Cosmology

Acharya Kapil - Father of Cosmology

Celebrated as the founder of Sankhya philosophy, Acharya Kapil is believed to have been born in 3000 BCE to the illustrious sage Kardam and Devhuti. He gifted the world with the Sankhya School of Thought. His pioneering work threw light on the nature and principles of the ultimate Soul (Purusha), primal matter (Prakruti) and creation.

His concept of transformation of energy and profound commentaries on atma, non-atma and the subtle elements of the cosmos places him in an elite class of master achievers - incomparable to the discoveries of other cosmologists. On his assertion that Prakruti, with the inspiration of Purusha, is the mother of cosmic creation and all energies, he contributed a new chapter in the science of cosmology. Because of his extrasensory observations and revelations on the secrets of creation, he is recognized and saluted as the Father of Cosmology.
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Friday, October 19, 2012

Sanskrit is the oldest Language in the World


संस्कृत विश्व की सब से प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत काशाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पू्र्णतया वैज्ञायानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण नें विश्व भर के भाषा विशेषज्ञ्यों का ध्यानाकर्षण किया है तथा उन के मतानुसार भी यह भाषा कम्पयूटर के उपयोग के लिये सर्वोत्तम भाषा है। संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है।

इस भाषा को ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना कि लिये चुना क्योंकि इस भाषा के शब्दों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था। इसी भाषा में वेद प्रगट हुये, तथा उपनिष्दों, रामायण, महाभारत और पुराणों की रचना की गयी। मानव इतिहास में संस्कृत का साहित्य सब से अधिक समृद्ध और सम्पन्न है।

संस्कृत भाषा में दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, विज्ञान, ललित कलायें, कामशास्त्र, संगीतशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, हस्त रेखा ज्ञान, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, युद्ध कला,कूटनिति तथा महाकाव्य, नाट्य शास्त्र आदि सभी विषयों पर मौलिक तथा विस्तरित गृन्थ रचे गये हैं। कोई भी विषय अनछुआ नहीं बचा। संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। अमेरिका संस्कृत को ‘NASA’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है।

रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी प्राचीन संस्कृत पुस्तकों से नई चीजों पर शोध और खोज कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए जुटे हैं, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय भारत में नहीं है। भारत की सरकार और लोगों को भी अब जागना चाहिए और अँग्रेजी की गुलामी से बाहर निकाल कर अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए।

भारत सरकार को भी ‘संस्कृत’ को नर्सरी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करके देववाणी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहिए। केवल संस्कृत ही भारत के प्राचीन इतिहास तथा विज्ञान को वर्तमान से जोडने में सक्षम है। यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने समूल को स्वयं ही नष्ट कर दें गे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है।और प्राचीन ऋषियों का ज्ञान संग्रहीत है, यानि हमारी ज्ञान धरोहर इसमें ही है! नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पडे गा।
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Hindu Discovered the First Plane With Proof


विमान की शोध सबसे पहले हिन्दू ने की थी जानिए सबुत के साथ

अपने आप को भारतीय कहलाने वाले गर्व करो |

पाश्चात्य संस्कृति पर मरने वालो शर्म करो |

भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1. ऋगवेद- इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2. यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3. विमानिका शास्त्र –1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।

विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।
इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं।

ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4. यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।

शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर’ नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे।

5. समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं

6. कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

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The First Nuclear Scientist of the World


The First Nuclear Scientist of the World


The First Nuclear Scientist of the World

The great man who enlightened the scientific boundaries of life at ‘quantum level’, he was the first nuclear scientist of India perhaps the world’s first.

The modern nuclear epoch was started in 1929; Einstein, Neils Bohr, Enrico ferny, Villard and Oppenheimer led the world to the dawn of the nuclear epoch.

In spite of the great work of the modern world’s nuclear scientists, why should we call ‘Maharshi Kanad’, the pioneer of ‘Quantum Mechanics’?

The work span of ‘Maharshi Kanad’ is dated back to the second century. He was born in the ‘Prabhas’ region (old name). ‘Aacharya Soma Sharma’ was his guru.

He has briefly described his concepts of electron in his Darshan- Grantha… ‘Vaisheshik Darshan’. Many critics have written their opinions (Bhashya) about this –Darshan.

This is an abstract of the great man’s work…. We can say it as postulates of Kanad’s theory or Kanad’s thesis: -

Elements are formed due to the specific arrangement of electrons; he first introduced this concept. The fundamental material of element is the basic reason behind the activity and characteristic properties of ‘Karma’ (sequence of events without time limit).

All the substances originated from earth are made up of micro and indivisible particles called electrons. The electrons are in stable or non-vibratory motion and the reason behind their initial vibratory motion is unknown.

Atomic energy is created due to the chain of reaction of these electrons and this creates such vibrations in the element and creates destruction.

Electrons can be used to measure time. Electron is the smallest unit to measure time.
So we can conclude that use of electrons to measure time was defined before 1700 years in India

In terms of the ‘second’ i.e. unit of time, One electron is equal to 37967.75th part of second. i.e. 1 electron =1/37967.75 second. Specialty of Kanad is his research work was not limited only up to the element.

According to him, all the substances, which are originated from the Earth, are made up of the smallest and indivisible electrons.

Though electrons in all the substances are smallest, they are not indivisible. Accordingly, electrons in some substances are divisible and such divisible electrons are used in destruction.

Kanad said that, Human mind is also made up of fusion of electrons; this can give rise to brief research work.

Kanad defined ‘life’ as an organized form of atoms and molecules and ‘death’ as an unorganized form of those atoms and molecules.
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Friday, July 27, 2012

चीनी यात्री की चाणक्य से मुलाकात




जब चीनी यात्री चाणक्य से मिला


घटना उन दिनों की है जब भारत पर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन था और आचार्य चाणक्य यहाँ के महामंत्री थे और चन्द्रगुप्त के गुरु भी थे उन्हीं के बदौलत चन्द्रगुप्त ने भारत की सत्ता हासिल की थी.
 
चाणक्य अपनी योग्यता और कर्तव्यपालन के लिए देश विदेश मे प्रसिद्ध थे उन दिनों एक चीनी यात्री भारत आया यहाँ घूमता फिरता जब वह पाटलीपुत्र पहुंचा तो उसकी इच्छा चाणक्य से मिलने की हुई उनसे मिले बिना उसे अपनी भारत यात्रा अधूरी महसूस हुई. पाटलिपुत्र उन दिनों मौर्य वंश की राजधानी थी. वहीं चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी रहते थे लेकिन उनके रहने का पता उस यात्री को नहीं था लिहाजा पाटलिपुत्र मे सुबह घूमता-फिरता वह गंगा किनारे पहुँचा.
 
यहाँ उसने एक वृद्ध को देखा जो स्नान करके अब अपनी धोती धो रहा था. वह साँवले रंग का साधारण व्यक्ति लग रहा था लेकिन उसके चहरे पर गंभीरता थी उसके लौटने की प्रतीक्षा मे यात्री एक तरफ खड़ा हो गया वृद्ध ने धोती धो कर अपने घड़े मे पनी भरा और वहाँ से चल दिया. जैसे ही यह यात्री के नजदीक पहुंचा यात्री ने आगे बढ़कर भारतीय शैली मे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और बोला , “महाशय मैं चीन का निवासी हूँ भारत मे काफी घूमा हूँ यहाँ के महामंत्री आचार्य चाणक्य के दर्शन करना चाहता हूँ. क्या आप मुझे उनसे मिलने का पता बता पाएंगे?” वृद्ध ने यात्री का प्रणाम स्वीकार किया और आशीर्वाद दिया. फिर उस पर एक नज़र डालते हुये बोला, “अतिथि की सहायता करके मुझे प्रसन्नता होगी आप कृपया मेरे साथ चले.”
 
फिर आगे-आगे वह वृद्ध और पीछे-पीछे वह यात्री चल दिये. वह रास्ता नगर की ओर न जा कर जंगल की ओर जा रहा था. यात्री को आशंका हुई की वह वृद्ध उसे किसी गलत स्थान पर तो नहीं ले जा रहा है. फिर भी उस वृद्ध की नाराजकी के डर से कुछ कह नहीं पाया. वृद्ध के चहरे पर गंभीरता और तेज़ था की चीनी यात्री उसके सामने खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था. उसे इस बात की भली भांति जानकारी थी की भारत मे अतिथियों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है और सम्पूर्ण भारत मे चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त का इतना दबदबा था की कोई अपराध करने की हिम्मत नहीं कर सकता था, इसलिए वह अपनी सुरक्षा की प्रति निश्चिंत था.
 
वह यही सोच रहा था की चाणक्य के निवास स्थान मे पहुँचने के लिए ये छोटा मार्ग होगा. वृद्ध लंबे- लंबे डग भरते हुये काफी तेजी से चल रहा था चीनी यात्री को उसके साथ चलने मे काफी दिक्कत हो रही थी. नतीजन वह पिछड़ने लगा. वृद्ध को उस यात्री की परेशानी समझ गयी व धीरे-धीरे चलने लगा. अब चीनी यात्री आराम से उसके साथ चलने लगा. रास्ता भर वे खामोसी से आगे बढ़ते रहे.
 
थोड़ी देर बाद वृद्ध एक आश्रम से निकट पहुंचा जहां चारों ओर शांति थी तरह- तरह के फूल पत्तियों से से आश्रम घिरा हुआ था. वृद्ध वहाँ पहुंच कर रुका और यात्री को वहीं थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कह कर आश्रम मे चला गया.
 
यात्री सोचने लगा की वह वृद्ध शायद इसी आश्रम मे रहता होगा और अब पानी का घड़ा और भीगे वस्त्र रख कर कहीं आगे चलेगा.
 
कुछ क्षण बाद यात्री से सुना , “महामंत्री चाणक्य अपने अतिथि का स्वागत करते है. पधारिए महाशय ”
 
यात्री ने नज़रे उठाई और देखता रह गया वही वृद्ध आश्रम के द्वार पर खड़ा उसका स्वागत कर रहा था. उसके मुंह से आश्चर्य से निकाल पड़ा “आप?”
 
“हाँ महाशय” वृद्ध बोला “मैं ही महामंत्री चाणक्य हूँ और यही मेरा निवास स्थान है. आप निश्चिंत होकर आश्रम मे पधारे.”
 
यात्री ने आश्रम मे प्रवेश किया लेकिन उसके मन में याद आशंका बनी रही कि कहीं उसे मूर्ख तो नही बनाया जा रहा है. वह इस बात पर यकीन ही नहीं कर पा रहा था कि एक महामंत्री इतनी सादगी का जीवन व्यतीत करता है. नदी पर अकेले ही पैदल स्नान के लिए जाना. वहाँ से स्वयं ही अपने वस्त्र धोना, घड़ा भर कर लाना और बस्ती से दूर आश्रम मे रहना, यह सब चाणक्य जैसे विश्वप्रसिद्ध व्यक्ति कि ही दिनचर्या है.
 
उस ने आश्रम मे इधर उधर देखा. साधारण किस्म का समान था. एक कोने मे उपलों का ढेर लगा हुआ था. वस्त्र सुखाने के लिए बांस टंगा हुआ था. दूसरी तरफ मसाला पीसने के लिए सील बट्टा रखा हुआ था. कहीं कोई राजसी ठाट-बाट नहीं था.
 
चाणक्य ने यात्री को अपनी कुटियाँ मे ले जाकर आदर सहित आसान पर बैठाया और स्वयं उसके सामने दूसरे आसान पर बैठ गए.
 
यात्री के चेहरे पर बिखरे हुए भाव समझते हुये चाणक्य बोले, “महाशय, शायद आप विश्वास नहीं कर पा रहे है कि, इस विशाल राज्य का महामंत्री मैं ही हूँ तथा यह आश्रम ही महामंत्री का मूल निवास स्थान है. विश्वास कीजिये ये दोनों ही बातें सच है. शायद आप भूल रहे है कि आप भारत मे है जहां कर्तव्यपालन को महत्व दिया जा रहा है, ऊपरी आडंबर को नहीं, यदि आपको राजशी ठाट-बाट देखना है तो आप सम्राट के निवास स्थान पर पधारे, राज्य का स्वामी और उसका प्रतीक सम्राट होता है, महामंत्री नहीं”.
 
चाणक्य कि बाते सुन कर चीनी यात्री को खुद पर बहुत लज्जा आयी कि उसने व्यर्थ ही चाणक्य और उनके निवास स्थान के बारे मे शंका कि. इत्तेफाक से उसे समय वहाँ सम्राट चन्द्रगुप्त अपने कुछ कर्मचारियों के साथ आ गए. उन्होने अपने गुरु के पैर छूये और कहा, “गुरुदेव राजकार्य के संबंध मे आप से कुछ सलाह लेनी थी इसलिए उपस्थित हुआ हूँ.
 
इस पर चाणक्य ने आशीर्वाद देते हुये कहा, “उस संबंध मे हम फिर कभी बात कर लेंगे अभी तो तुम हमारे 
 
अतिथि से मिलो, यह चीनी यात्री हैं. इन्हे तुम अपने राजमहल ले जाओ. इनका भली-भांति स्वागत करो और फिर संध्या को भोजन के बाद इन्हे मेरे पास ले आना, तब इनसे बातें करेंगे”.
 
सम्राट चन्द्रगुप्त आचार्य को प्रणाम करके यात्री को अपने साथ ले कर लौट गए.
 
संध्या को चाणक्य किसी राजकीय विषय पर चिंतन करते हुये कुछ लिखने मे व्यस्त थे. सामने ही दीपक जल रहा था. चीनी यात्री ने चाणक्य को प्रणाम किया और एक ओर बिछे आसान पर बैठ गया.
 
चाणक्य ने अपनी लेखन सामग्री एक ओर रख दी और दीपक बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया. इस के बाद चीनी यात्री को संबोधित करते हुये बोले, “महाशय, हमारे देश मे आप काफी घूमे-फिरे है. कैसा लगा आप को यह देश?”
 
चीनी यात्री ने नम्रता से बोला, “आचार्य, मैं इस देश के वातावरण और निवासियों से बहुत प्रभावित हुआ हूँ. लेकिन यहाँ पर मैंने ऐसी अनेक विचित्रताएं भी देखीं हैं जो मेरी समझ से परे है”.
“कौन सी विचित्रताएं, मित्र?” चाणक्य ने स्नेह से पूछा.
 
“उदाहरण के लिए सादगी की ही बात कर ली जा सकती है. इतने बड़े राज्य के महामन्त्री का जीवन इतनी सादगी भरा होगा, इस की तो कल्पना भी हम विदेशी नहीं कर सकते,” कह कर चीनी यात्री ने अपनी बात आगे बढ़ाई,
 
“अभी अभी एक और विचित्रता मैंने देखी है आचार्य, आज्ञा हो तो कहूँ?”
“अवश्य कहो मित्र, आपका संकेत कौन सी विचित्रता से की ओर है?”
 
“अभी अभी मैं जब आया तो आप एक दीपक की रोशनी मे काम कर रहे थे. मेरे आने के बाद उस दीपक को बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया. मुझे तो दोनों दीपक एक समान लगे रहे है. फिर एक को बुझा कर दूसरे को जलाने का रहस्य मुझे समझ नहीं आया?”
 
आचार्य चाणक्य मंदमंद मुस्कुरा कर बोले इसमे ना तो कोई रहस्य है और ना विचित्रता. इन 2 दीपको मे से एक राजकोष का तेल है और दूसरे मे मेरे अपने परिश्रम से खरीदा गया तेल. जब आप यहाँ आए थे तो मैं राजकीय कार्य कर रहा था इसलिए उस समय राजकोष के तेल वाला दीपक जला रहा था. इस समय मैं आपसे व्यक्तिगत बाते कर रहा हूँ इसलिए राजकोष के तेल वाला दीपक जलना उचित और न्यायसंगत नहीं है. लिहाज मैंने वो वाला दीपक बुझा कर अपनी आमनी वाला दीपक जला दिया”.
 
चाणक्य की बात सुन कर यात्री दंग रह गया और बोला, “धन्य हो आचार्य, भारत की प्रगति और उसके विश्वगुरु बनने का रहस्य अब मुझे समझ मे आ गया है. जब तक यहाँ के लोगो का चरित्र इतना ही उन्नत और महान बना रहेगा, उस देश की तरक्की को संसार की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी. इस देश की यात्रा करके और आप जैसे महात्मा से मिल कर मैं खुद को गौरवशाली महसूस कर रहा हूँ.
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Sunday, July 22, 2012

एक लेख सिर्फ सच्चे भारतीयों के लिये



एक लेख सिर्फ सच्चे भारतीयों के लिये

यदि आपके पास समय नहीं है तो कृपया इस लेख को पढऩे की शुरूआत ही मत कीजिए।
यह लेख आपके अपने भारत की व्यवस्था सेजुड़ा है और बहुत ही गंभीर विषय है। यदि आपके पास समय है तो कृपया पढि़ए क्या कुछ उजागर कर रहे हैं हम ..

साथियों , व्यवस्था परिवर्तन क्यो जरूरी है ? आजादी के 64 साल बाद भी देश मे सारे वही कानून अभी तक है, जो अन्ग्रेजों ने हमें लूटने कि लिये बनाये थे ।

(01) 1857 में एक क्रांति हुई जिसमे इस देश में मौजूद 99 % अंग्रेजों को भारत के लोगों ने चुन चुन के मार डाला था |

(02) हमारे देश के इतिहास की किताबों में उस 1857 की क्रांति को सिपाही विद्रोह के नाम से पढाया जाता है | जो बिलकुल गलत है | Mutiny और Revolution में अंतर होता है लेकिन इस क्रांति को विद्रोह के नाम से ही पढाया गया हमारे इतिहास में |

(03) अंग्रेज जब वापस आये तो उन्होंने क्रांति के उद्गम स्थल बिठुर (जो कानपुर के नजदीक है) पहुँच कर सभी 24000 लोगों का मार दिया चाहे वो नवजात हो या मरणासन्न |

(04) 1857 से उन्होंने भारत के लिए ऐसे-ऐसे कानून बनाये जो एक सरकार के शासन करने के लिए जरूरी होता है | आप देखेंगे कि हमारे यहाँ जितने कानून हैं वो सब के सब 1857 से लेकर 1946 तक के हैं |

(05) तो अंग्रेजों ने सबसे पहला कानून बनाया Central Excise Duty Act और टैक्स तय किया गया 350% मतलब 100 रूपये का उत्पादन होगा तो 350 रुपया Excise Duty देना होगा | फिर अंग्रेजों ने समान के बेचने पर Sales Tax लगाया और वो तय किया गया 120% मतलब 100 रुपया का माल बेचो तो 120 रुपया CST दो |

(06) 1840 से लेकर 1947 तक टैक्स लगाकर अंग्रेजों ने जो भारत को लुटा उसके सारे रिकार्ड बताते हैं कि करीब 300 लाख करोड़ रुपया लुटा अंग्रेजों ने इस देश से |

(07) आपने पढ़ा होगा कि हमारे देश में उस समय कई अकाल पड़े, ये अकाल प्राकृतिक नहीं था बल्कि अंग्रेजों के ख़राब कानून से पैदा हुए अकाल थे,

(08) हमारे देश में अंग्रेजों ने 34735 कानून बनाये शासन करने के लिए,

(09) 1858 में Indian Education Act बनाया गया |

(10) मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे |

(11) मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी वो, उसमे वो लिखता है कि "इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी "

(12) लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है |

(13) 1860 में इंडियन पुलिस एक्ट बनाया गया | 1857 के पहले अंग्रेजों की कोई पुलिस नहीं थी| और वही दमन और अत्याचार वाला कानून "इंडियन पुलिस एक्ट" आज भी इस देश में बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले चल रहा है | और बेचारे पुलिस की हालत देखिये कि ये 24 घंटे के कर्मचारी हैं उतने ही तनख्वाह में| तनख्वाह मिलती है 8 घंटे की और ड्यूटी रहती है 24 घंटे की |

(14) और जेल के कैदियों को अल्युमिनियम के बर्तन में खाना दिया जाता था ताकि वो जल्दी मरे, वो अल्युमिनियम के बर्तन में खाना देना आज भी जारी हैं हमारे जेलों में, क्योंकि वो अंग्रेजों के इस कानून में है |

(15) 1860 में ही इंडियन सिविल सर्विसेस एक्ट बनाया गया | ये जो Collector हैं वो इसी कानून की देन हैं | ये जो Collector होते थे उनका काम था Revenue, Tax, लगान और लुट के माल को Collect करना इसीलिए ये Collector कहलाये | अब इस कानून का नाम Indian Civil Services Act से बदल कर Indian Civil Administrative Act हो गया है, 64 सालों में बस इतना ही बदलाव हुआ है |

(16) *Indian Income Tax Act -* तो ध्यान दीजिये कि इस देश में टैक्स का कानून क्यों लाया जा रहा है ? क्योंकि इस देश के व्यापारियों को, पूंजीपतियों को, उत्पादकों को, उद्योगपतियों को, काम करने वालों को या तो बेईमान बनाया जाये या फिर बर्बाद कर दिया जाये, ईमानदारी से काम करें तो ख़त्म हो जाएँ और अगर बेईमानी करें तो हमेशा ब्रिटिश सरकार के अधीन रहें | अंग्रेजों ने इनकम टैक्स की दर रखी थी 97% और इस व्यवस्था को 1947 में ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आपको जान के ये आश्चर्य होगा कि 1970-71 तक इस देश में इनकम टैक्स की दर 97% ही हुआ करती थी |

(17) अंग्रेजों ने तो 23 प्रकार के टैक्स लगाये थे उस समय इस देश को लुटने के लिए, अब तो इस देश में VAT को मिला के 64 प्रकार के टैक्स हो गए हैं |

(18) 1865 में Indian Forest Act बनाया गया और ये लागू हुआ 1872 में | इस कानून के बनने के पहले जंगल गाँव की सम्पति माने जाते थे|

(19) इस कानून में ये प्रावधान किया कि भारत का कोई भी आदिवासी या दूसरा कोई भी नागरिक पेड़ नहीं काट सकता | लेकिन दूसरी तरफ जंगलों के लकड़ी की कटाई के लिए ठेकेदारी प्रथा लागू की गयी जो आज भी लागू है और कोई ठेकेदार जंगल के जंगल साफ़ कर दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता | ये इंडियन फोरेस्ट एक्ट ऐसा है जिसमे सरकार के द्वारा अधिकृत ठेकेदार तो पेड़ काट सकते हैं लेकिन आप और हम चूल्हा जलाने के लिए, रोटी बनाने के लिए लकड़ी नहीं ले सकते और उससे भी ज्यादा ख़राब स्थिति अब हो गयी है, आप अपने जमीन पर के पेड़ भी नहीं काट सकते |

(20 ) *Indian Penal Code *- अंग्रेजों ने एक कानून हमारे देश में लागू किया था जिसका नाम है Indian Penal Code (IPC ) | ड्राफ्टिंग करते समय मैकोले ने एक पत्र भेजा था ब्रिटिश संसद को जिसमे उसने लिखा था कि "मैंने भारत की न्याय व्यवस्था को आधार देने के लिए एक ऐसा कानून बना दिया है जिसके लागू होने पर भारत के किसी आदमी को न्याय नहीं मिल पायेगा | इस कानून की जटिलताएं इतनी है कि भारत का साधारण आदमी तो इसे समझ ही नहीं सकेगा और जिन भारतीयों के लिए ये कानून बनाया गया है उन्हें ही ये सबसे ज्यादा तकलीफ देगी |

(21) ये हमारी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के इसी IPC के आधार पर चल रही है | और आजादी के 64 साल बाद हमारी न्याय व्यवस्था का हाल देखिये कि लगभग 4 करोड़ मुक़दमे अलग-अलग अदालतों में पेंडिंग हैं, उनके फैसले नहीं हो पा रहे हैं | 10 करोड़ से ज्यादा लोग न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं लेकिन न्याय मिलने की दूर-दूर तक सम्भावना नजर नहीं आ रही है, कारण क्या है ? कारण यही IPC है | IPC का आधार ही ऐसा है |

(22) *L*** Acquisition Act -* एक अंग्रेज आया इस देश में उसका नाम था डलहौजी | डलहौजी ने इस "जमीन को हड़पने के कानून" को भारत में लागू करवाया, इस कानून को लागू कर के किसानों से जमीने छिनी गयी | गाँव गाँव जाता था और अदालतें लगवाता था और लोगों से जमीन के कागज मांगता था" | और आप जानते हैं कि हमारे यहाँ किसी के पास उस समय जमीन के कागज नहीं होते थे| एक दिन में पच्चीस-पच्चीस हजार किसानों से जमीनें छिनी गयी | डलहौजी ने आकर इस देश के 20 करोड़ किसानों को भूमिहीन बना दिया और वो जमीने अंग्रेजी सरकार की हो गयीं | 1947 की आजादी के बाद ये कानून ख़त्म होना चाहिए था लेकिन नहीं, इस देश में ये कानून आज भी चल रहा है | आज भी इस देश में किसानों की जमीन छिनी जा रही है बस अंतर इतना ही है कि पहले जो काम अंग्रेज सरकार करती थी वो काम आज भारत सरकार करती है | पहले जमीन छीन कर अंग्रेजों के अधिकारी अंग्रेज सरकार को वो जमीनें भेंट करते थे, अब भारत सरकार वो जमीनें छिनकर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भेंट कर रही है | 1894 का ये अंग्रेजों का कानून बिना किसी परेशानी के इस देश में आज भी चल रहा है | इसी देश में नंदीग्राम होते हैं, इसी देश में सिंगुर होते हैं और अब नोएडा हो रहा है | जहाँ लोग नहीं चाहते कि हम हमारी जमीन छोड़े, वहां लाठियां चलती हैं, गोलियां चलती है |

(23) अंग्रेजों ने एक कानून लाया था Indian Citizenship Act, कानून में ऐसा प्रावधान है कि कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) एक खास अवधि तक इस देश में रह ले तो उसे भारत की नागरिकता मिल सकती है (जैसे बंगलादेशी शरणार्थी) | दुनिया में 204 देश हैं लेकिन दो-तीन देश को छोड़ के हर देश में ये कानून है कि आप जब तक उस देश में पैदा नहीं हुए तब तक आप किसी संवैधानिक पद पर नहीं बैठ सकते, लेकिन भारत में ऐसा नहीं है| ये अंग्रेजों के समय का कानून है, हम उसी को चला रहे हैं, उसी को ढो रहे हैं आज भी, आजादी के 64 साल बाद भी |

(24) *Indian Advocates Act - हमारे यहाँ वकीलों का जो ड्रेस कोड है वो इसी कानून के आधार पर है, काला कोट, उजला शर्ट और बो ये हैं वकीलों का ड्रेस कोड | इंग्लैंड में चुकी साल में 8-9 महीने भयंकर ठण्ड पड़ती है तो उन्होंने ऐसा ड्रेस अपनाया| हमारे यहाँ का मौसम गर्म है और साल में नौ महीने तो बहुत गर्मी रहती है और अप्रैल से अगस्त तक तो तापमान 40-50 डिग्री तक हो जाता है फिर ऐसे ड्रेस को पहनने से क्या फायदा जो शरीर को कष्ट दे,| लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक हमेशा मराठी पगड़ी पहन कर अदालत में बहस करते थे और गाँधी जी ने कभी काला कोट नहीं पहना|

(25 ) *Indian Motor Vehicle Act -* उस ज़माने में कार/मोटर जो था वो सिर्फ अंग्रेजों, रजवाड़ों और पैसे वालों के पास होता था तो इस कानून में प्रावधान डाला गया कि अगर किसी को मोटर से धक्का लगे या धक्के से मौत हो जाये तो सजा नहीं होनी चाहिए या हो भी तो कम से कम | सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस देश में हर साल डेढ़ लाख लोग गाड़ियों के धक्के से या उसके नीचे आ के मरते हैं लेकिन आज तक किसी को फाँसी या आजीवन कारावास नहीं हुआ |

(26) *Indian Agricultural Price Commission Act -* ये भी अंग्रेजों के ज़माने का कानून है | पहले ये होता था कि किसान, जो फसल उगाते थे तो उनको ले के मंडियों में बेचने जाते थे और अपने लागत के हिसाब से उसका दाम तय करते थे | आप हर साल समाचारों में सुनते होंगे कि "सरकार ने गेंहू का,धान का, खरीफ का, रबी का समर्थन मूल्य तय किया" | उनका मूल्य तय करना सरकार के हाथ में होता है | और आज दिल्ली के AC Room में बैठ कर वो लोग किसानों के फसलों का दाम तय करते हैं जिन्होंने खेतों में कभी पसीना नहीं बहाया और जो खेतों में पसीना बहाते हैं, वो अपने उत्पाद का दाम नहीं तय कर सकते |

(27) *Indian Patent Act - * अंग्रेजों ने एक कानून लाया Patent Act , और वो बना था 1911 . ये जा के 1970 में ख़त्म हुआ श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रयासों से लेकिन इसे अब फिर से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में बदल दिया गया है | मतलब इस देश के लोगों के हित से ज्यादा जरूरी है बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हित |

भारत के कानून !!

भारत में 1857 के पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हुआ करता था वो अंग्रेजी सरकार का सीधा शासन नहीं था | 1857 में एक क्रांति हुई जिसमे इस देश में मौजूद 99 % अंग्रेजों को भारत के लोगों ने चुन चुन के मार डाला था और 1% इसलिए बच गए क्योंकि उन्होंने अपने को बचाने के लिए अपने शरीर को काला रंग लिया था | लोग इतने गुस्से में थे कि उन्हें जहाँ अंग्रेजों के होने की भनक लगती थी तो वहां पहुँच के वो उन्हें काट डालते थे | हमारे देश के इतिहास की किताबों में उस क्रांति को सिपाही विद्रोह के नाम से पढाया जाता है |

Mutiny और Revolution में अंतर होता है लेकिन इस क्रांति को विद्रोह के नाम से ही पढाया गया हमारे इतिहास में | 1857 की गर्मी में मेरठ से शुरू हुई ये क्रांति जिसे सैनिकों ने शुरू किया था, लेकिन एक आम आदमी का आन्दोलन बन गया और इसकी आग पुरे देश में फैली और 1 सितम्बर तक पूरा देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गया था | भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी अत्याचार से पूरी तरह मुक्त हो गया था |

लेकिन नवम्बर 1857 में इस देश के कुछ गद्दार रजवाड़ों ने अंग्रेजों को वापस बुलाया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित करने में हर तरह से योगदान दिया | धन बल, सैनिक बल, खुफिया जानकारी, जो भी सुविधा हो सकती थी उन्होंने दिया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित किया | और आप इस देश का दुर्भाग्य देखिये कि वो रजवाड़े आज भी भारत की राजनीति में सक्रिय हैं |

अंग्रेज जब वापस आये तो उन्होंने क्रांति के उद्गम स्थल बिठुर (जो कानपुर के नजदीक है) पहुँच कर सभी 24000 लोगों का मार दिया चाहे वो नवजात हो या मरणासन्न | बिठुर के ही नाना जी पेशवा थे और इस क्रांति की सारी योजना यहीं बनी थी इसलिए अंग्रेजों ने ये बदला लिया था | उसके बाद उन्होंने अपनी सत्ता को भारत में पुनर्स्थापित किया और जैसे एक सरकार के लिए जरूरी होता है वैसे ही उन्होंने कानून बनाना शुरू किया | अंग्रेजों ने कानून तो 1840 से ही बनाना शुरू किया था और मोटे तौर पर उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया था, लेकिन 1857 से उन्होंने भारत के लिए ऐसे-ऐसे कानून बनाये जो एक सरकार के शासन करने के लिए जरूरी होता है | आप देखेंगे कि हमारे यहाँ जितने कानून हैं वो सब के सब 1857 से लेकर 1946 तक के हैं |

1840 तक का भारत जो था उसका विश्व व्यापार में हिस्सा 33% था, दुनिया के कुल उत्पादन का 43% भारत में पैदा होता था और दुनिया के कुल कमाई में भारत का हिस्सा 27% था | ये अंग्रेजों को बहुत खटकती थी, इसलिए आधिकारिक तौर पर भारत को लुटने के लिए अंग्रेजों ने कुछ कानून बनाये थे और वो कानून अंग्रेजों के संसद में बहस के बाद तैयार हुई थी, उस बहस में ये तय हुआ कि "भारत में होने वाले उत्पादन पर टैक्स लगा दिया जाये क्योंकि सारी दुनिया में सबसे ज्यादा उत्पादन यहीं होता है और ऐसा हम करते हैं तो हमें टैक्स के रूप में बहुत पैसा मिलेगा" |

तो अंग्रेजों ने सबसे पहला कानून बनाया Central Excise Duty Act और टैक्स तय किया गया 350% मतलब 100 रूपये का उत्पादन होगा तो 350 रुपया Excise Duty देना होगा | फिर अंग्रेजों ने समान के बेचने पर Sales Tax लगाया और वो तय किया गया 120% मतलब 100 रुपया का माल बेचो तो 120 रुपया CST दो |

फिर एक और टैक्स आया Income Tax और वो था 97% मतलब 100 रुपया कमाया तो 97 रुपया अंग्रेजों को दे दो | ऐसे ही Road Tax, Toll Tax, Municipal Corporation tax, Octroi, House Tax, Property Tax लगाया और ऐसे करते-करते 23 प्रकार का टैक्स लगाया अंग्रेजों ने और खूब लुटा इस देश को | 1840 से लेकर 1947 तक टैक्स लगाकर अंग्रेजों ने जो भारत को लुटा उसके सारे रिकार्ड बताते हैं कि करीब 300 लाख करोड़ रुपया लुटा अंग्रेजों ने इस देश से | तो भारत की जो गरीबी आयी है वो लुट में से आयी गरीबी है | विश्व व्यापार में जो हमारी हिस्सेदारी उस समय 33% थी वो घटकर 5% रह गयी, हमारे कारखाने बंद हो गए, लोगों ने खेतों में काम करना बंद कर दिया, हमारे मजदूर बेरोजगार हो गए |

इस तरीके से बेरोजगारी पैदा हुई, गरीबी-बेरोजगारी से भुखमरी पैदा हुई और आपने पढ़ा होगा कि हमारे देश में उस समय कई अकाल पड़े, ये अकाल प्राकृतिक नहीं था बल्कि अंग्रेजों के ख़राब कानून से पैदा हुए अकाल थे, और इन कानूनों की वजह से 1840 से लेकर 1947 तक इस देश में साढ़े चार करोड़ लोग भूख से मरे | तो हमारी गरीबी का कारण ऐतिहासिक है कोई प्राकृतिक,अध्यात्मिक या सामाजिक कारण नहीं है | हमारे देश में अंग्रेजों ने 34735 कानून बनाये शासन करने के लिए, सब का जिक्र करना तो मुश्किल है लेकिन कुछ मुख्य कानूनों के बारे में मैं संक्षेप में लिख रहा हूँ |

- *Indian Education Act -* 1858 में Indian Education Act बनाया गया | इसकी ड्राफ्टिंग लोर्ड मैकोले ने की थी | लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी | अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था | 1823 के आसपास की बात है ये | Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है | और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे, और मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है "कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी " |

इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया, और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमे पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला | 1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था, और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी | इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं | और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है
वो, उसमे वो लिखता है कि "इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने
में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे
में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं
मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश
से अंग्रेजियत नहीं जाएगी "

और उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है | और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा | लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है | शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है |

इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे | ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी | अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी | संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है | जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी |

- *Indian Police Act* - 1860 में इंडियन पुलिस एक्ट बनाया गया | 1857 के पहले अंग्रेजों की कोई पुलिस नहीं थी इस देश में लेकिन 1857 में जो विद्रोह हुआ उससे डरकर उन्होंने ये कानून बनाया ताकि ऐसे किसी विद्रोह/क्रांति को दबाया जा सके | अंग्रेजों ने इसे बनाया था भारतीयों का दमन और अत्याचार करने के लिए | उस पुलिस को विशेष अधिकार दिया गया | पुलिस को एक डंडा थमा दिया गया और ये अधिकार दे दिया गया कि अगर कहीं 5 से ज्यादा लोग हों तो वो डंडा चला सकता है यानि लाठी चार्ज कर सकता है और वो भी बिना पूछे और बिना बताये और पुलिस को तो Right to Offence है लेकिन आम आदमी को Right to Defense नहीं है |

आपने अपने बचाव के लिए उसके डंडे को पकड़ा तो भी आपको सजा हो सकती है क्योंकि आपने उसके ड्यूटी को पूरा करने में व्यवधान पहुँचाया है और आप उसका कुछ नहीं कर सकते | इसी कानून का फायदा उठाकर लाला लाजपत राय पर लाठियां चलायी गयी थी और लाला जी की मृत्यु हो गयी थी और लाठी चलाने वाले सांडर्स का क्या हुआ था ? कुछ नहीं, क्योंकि वो अपनी ड्यूटी कर रहा था और जब सांडर्स को कोई सजा नहीं हुई तो लालाजी के मौत का बदला भगत सिंह ने सांडर्स को गोली मारकर लिया था |

और वही दमन और अत्याचार वाला कानून "इंडियन पुलिस एक्ट" आज भी इस देश में बिना फुल स्टॉप और कौमा बदले चल रहा है | और बेचारे पुलिस की हालत देखिये कि ये 24 घंटे के कर्मचारी हैं उतने ही तनख्वाह में, तनख्वाह मिलती है 8 घंटे की और ड्यूटी रहती है 24 घंटे की | और जेल मैनुअल के अनुसार आपको पुरे कपडे उतारने पड़ेंगे आपकी बॉडी मार्क दिखाने के लिए भले ही आपका बॉडी मार्क आपके चेहरे पर क्यों न हो | और जेल के कैदियों को अल्युमिनियम के बर्तन में खाना दिया जाता था ताकि वो जल्दी मरे, वो अल्युमिनियम के बर्तन में खाना देना आज भी जारी हैं हमारे जेलों में, क्योंकि वो अंग्रेजों के इस कानून में है |

*ndian Civil Services Act* - 1860 में ही इंडियन सिविल सर्विसेस एक्ट बनाया गया | ये जो Collector हैं वो इसी कानून की देन हैं | भारत के Civil Servant जो हैं उन्हें Constitutional Protection है, क्योंकि जब ये कानून बना था उस समय सारे ICS अधिकारी अंग्रेज थे और उन्होंने अपने बचाव के लिए ऐसा कानून बनाया था, ऐसा विश्व के किसी देश में नहीं है, और वो कानून चुकी आज भी लागू है इसलिए भारत के IAS अधिकारी सबसे निरंकुश हैं | अभी आपने CVC थोमस का मामला देखा होगा | इनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता | और इन अधिकारियों का हर तीन साल पर तबादला हो जाता था क्योंकि अंग्रेजों को ये डर था कि अगर ज्यादा दिन तक कोई अधिकारी एक जगह रह गया तो उसके स्थानीय लोगों से अच्छे सम्बन्ध हो जायेंगे और वो ड्यूटी उतनी तत्परता से नहीं कर पायेगा या उसके काम काज में ढीलापन आ जायेगा | और वो ट्रान्सफर और पोस्टिंग का सिलसिला आज भी वैसे ही जारी है और हमारे यहाँ के कलक्टरों की जिंदगी इसी में कट जाती है |

और ये जो Collector होते थे उनका काम था Revenue, Tax, लगान और लुट के माल को Collect करना इसीलिए ये Collector कहलाये और जो Commissioner होते थे वो commission पर काम करते थे उनकी कोई तनख्वाह तय नहीं होती थी और वो जो लुटते थे उसी के आधार पर उनका कमीशन होता था | ये मजाक की बात या बनावटी कहानी नहीं है ये सच्चाई है इसलिए ये दोनों पदाधिकारी जम के लूटपाट और अत्याचार मचाते थे उस समय | अब इस कानून का नाम Indian Civil Services Act से बदल कर Indian Civil Administrative Act हो गया है, 64 सालों में बस इतना ही बदलाव हुआ है |

*Indian Income Tax Act -* इस एक्ट पर जब ब्रिटिश संसद में चर्चा हो रही थी तो एक सदस्य ने कहा कि "ये तो बड़ा confusing है, कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है", तो दुसरे ने कहा कि हाँ इसे जानबूझ कर ऐसा रखा गया है ताकि जब भी भारत के लोगों को कोई दिक्कत हो तो वो हमसे ही संपर्क करें | आज भी भारत के आम आदमी को छोडिये, इनकम टैक्स के वकील भी इसके नियमों को लेकर दुविधा की स्थिति में रहते हैं | और इनकम टैक्स की दर रखी गयी 97% यानि 100 रुपया कमाओ तो 97 रुपया टैक्स में दे दो और उसी समय ब्रिटेन से आने वाले सामानों पर हर तरीके के टैक्स की छुट दी जाती है ताकि ब्रिटेन के माल इस देश के गाँव-गाँव में पहुँच सके | और इसी चर्चा में एक सांसद कहता है कि "हमारे तो दोनों हाथों में लड्डू है, अगर भारत के लोग इतना टैक्स देते हैं तो वो बर्बाद हो जायेंगे या टैक्स की चोरी करते हैं तो बेईमान हो जायेंगे और अगर बेईमान हो गए तो हमारी गुलामी में आ जायेंगे और अगर बरबाद हुए तो हमारी गुलामी में आने ही वाले है" |

तो ध्यान दीजिये कि इस देश में टैक्स का कानून क्यों लाया जा रहा है ? क्योंकि इस देश के व्यापारियों को, पूंजीपतियों को, उत्पादकों को, उद्योगपतियों को, काम करने वालों को या तो बेईमान बनाया जाये या फिर बर्बाद कर दिया जाये, ईमानदारी से काम करें तो ख़त्म हो जाएँ और अगर बेईमानी करें तो हमेशा ब्रिटिश सरकार के अधीन रहें | अंग्रेजों ने इनकम टैक्स की दर रखी थी 97% और इस व्यवस्था को 1947 में ख़त्म हो जाना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ और आपको जान के ये आश्चर्य होगा कि 1970-71 तक इस देश में इनकम टैक्स की दर 97% ही हुआ करती थी |

और इसी देश में भगवान श्रीराम जब अपने भाई भरत से संवाद कर रहे हैं तो उनसे कह रहे है कि प्रजा पर ज्यादा टैक्स नहीं लगाया जाना चाहिए और चाणक्य ने भी कहा है कि टैक्स ज्यादा नहीं होना चाहिए नहीं तो प्रजा हमेशा गरीब रहेगी, अगर सरकार की आमदनी बढ़ानी है तो लोगों का उत्पादन और व्यापार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करो | अंग्रेजों ने तो 23 प्रकार के टैक्स लगाये थे उस समय इस देश को लुटने के लिए, अब तो इस देश में VAT को मिला के 64 प्रकार के टैक्स हो गए हैं |

महात्मा गाँधी के देश में नमक पर भी टैक्स हो गया है और नमक भी विदेशी कंपनियां बेंच रही हैं, आज अगर गाँधी जी की आत्मा स्वर्ग से ये देखती होगी तो आठ-आठ आंसू रोती होगी कि जिस देश में मैंने नमक सत्याग्रह किया कि विदेशी कंपनी का नमक न खाया जाये आज उस देश में लोग विदेश कंपनी का नमक खरीद रहे हैं और नमक पर टैक्स लगाया जा रहा है | शायद हमको मालूम नहीं है कि हम कितना बड़ा National Crime कर रहे हैं |

*Indian Forest Act -* 1865 में Indian Forest Act बनाया गया और ये लागू हुआ 1872 में | इस कानून के बनने के पहले जंगल गाँव की सम्पति माने जाते थे और गाँव के लोगों की सामूहिक हिस्सेदारी होती थी इन जंगलों में, वो ही इसकी देखभाल किया करते थे, इनके संरक्षण के लिए हर तरह का उपाय करते थे, नए पेड़ लगाते थे और इन्ही जंगलों से जलावन की लकड़ी इस्तेमाल कर के वो खाना बनाते थे |

अंग्रेजों ने इस कानून को लागू कर के जंगल के लकड़ी के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर दिया | साधारण आदमी अपने घर का खाना बनाने के लिए लकड़ी नहीं काट सकता और अगर काटे तो वो अपराध है और उसे जेल हो जाएगी, अंग्रेजों ने इस कानून में ये प्रावधान किया कि भारत का कोई भी आदिवासी या दूसरा कोई भी नागरिक पेड़ नहीं काट सकता और आम लोगों को लकड़ी काटने से रोकने के लिए उन्होंने एक पोस्ट बनाया District Forest Officer जो उन लोगों को तत्काल सजा दे सके, उस पर केस करे, उसको मारे-पीटे |

लेकिन दूसरी तरफ जंगलों के लकड़ी की कटाई के लिए ठेकेदारी प्रथा लागू की गयी जो आज भी लागू है और कोई ठेकेदार जंगल के जंगल साफ़ कर दे तो कोई फर्क नहीं पड़ता | अंग्रेजों द्वारा नियुक्त ठेकेदार जब चाहे, जितनी चाहे लकड़ी काट सकते हैं | हमारे देश में एक अमेरिकी कंपनी है जो वर्षों से ये काम कर रही है, उसका नाम है ITC पूरा नाम है Indian Tobacco Company इसका असली नाम है American Tobacco Company, और ये कंपनी हर साल 200 अरब सिगरेट बनाती है और इसके लिए 14 करोड़ पेड़ हर साल काटती है | इस कंपनी के किसी अधिकारी या कर्मचारी को आज तक जेल की सजा नहीं हुई क्योंकि ये इंडियन फोरेस्ट एक्ट ऐसा है जिसमे सरकार के द्वारा अधिकृत ठेकेदार तो पेड़ काट सकते हैं लेकिन आप और हम चूल्हा जलाने के लिए, रोटी बनाने के लिए लकड़ी नहीं ले सकते और उससे भी ज्यादा ख़राब स्थिति अब हो गयी है, आप अपने जमीन पर के पेड़ भी नहीं काट सकते |

तो कानून ऐसे बने हुए हैं कि साधारण आदमी को आप जितनी प्रताड़ना दे सकते हैं, दुःख दे सकते है, दे दो विशेष आदमी को आप छू भीं नहीं सकते | और जंगलों की कटाई से घाटा ये हुआ कि मिटटी बह-बह के नदियों में आ गयी और नदियों की गहराई को इसने कम कर दिया और बाढ़ का प्रकोप बढ़ता गया |

*Indian Penal Code *- अंग्रेजों ने एक कानून हमारे देश में लागू किया था जिसका नाम है Indian Penal Code (IPC ) | ये Indian Penal Code अंग्रेजों के एक और गुलाम देश Ireland के Irish Penal Code की फोटोकॉपी है, वहां भी ये IPC ही है लेकिन Ireland में जहाँ "I" का मतलब Irish है वहीं भारत में इस "I" का मतलब Indian है, इन दोनों IPC में बस इतना ही अंतर है बाकि कौमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है | अंग्रेजों का एक अधिकारी था .वी.मैकोले, उसका कहना था कि भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाना है तो इसके शिक्षा तंत्र और न्याय व्यवस्था को पूरी तरह से समाप्त करना होगा |

और आपने अभी ऊपर Indian Education Act पढ़ा होगा, वो भी मैकोले ने ही बनाया था और उसी मैकोले ने इस IPC की भी ड्राफ्टिंग की थी | ये बनी 1840 में और भारत में लागू हुई 1860 में | ड्राफ्टिंग करते समय मैकोले ने एक पत्र भेजा था ब्रिटिश संसद को जिसमे उसने लिखा था कि "मैंने भारत की न्याय व्यवस्था को आधार देने के लिए एक ऐसा कानून बना दिया है जिसके लागू होने पर भारत के किसी आदमी को न्याय नहीं मिल पायेगा | इस कानून की जटिलताएं इतनी है कि भारत का साधारण आदमी तो इसे समझ ही नहीं सकेगा और जिन भारतीयों के लिए ये कानून बनाया गया है उन्हें ही ये सबसे ज्यादा तकलीफ देगी |

और भारत की जो प्राचीन और परंपरागत न्याय व्यवस्था है उसे जडमूल से समाप्त कर देगा"| और वो आगे लिखता है कि " जब भारत के लोगों को न्याय नहीं मिलेगा तभी हमारा राज मजबूती से भारत पर स्थापित होगा" | ये हमारी न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के इसी IPC के आधार पर चल रही है | और आजादी के 64 साल बाद हमारी न्याय व्यवस्था का हाल देखिये कि लगभग 4 करोड़ मुक़दमे अलग-अलग अदालतों में पेंडिंग हैं, उनके फैसले नहीं हो पा रहे हैं | 10 करोड़ से ज्यादा लोग न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं लेकिन न्याय मिलने की दूर-दूर तक सम्भावना नजर नहीं आ रही है, कारण क्या है ? कारण यही IPC है |

IPC का आधार ही ऐसा है | और मैकोले ने लिखा था कि "भारत के लोगों के मुकदमों का फैसला होगा, न्याय नहीं मिलेगा" | मुक़दमे का निपटारा होना अलग बात है, केस का डिसीजन आना अलग बात है, केस का जजमेंट आना अलग बात है और न्याय मिलना बिलकुल अलग बात है | अब इतनी साफ़ बात जिस मैकोले ने IPC के बारे में लिखी हो उस IPC को भारत की संसद ने 64 साल बाद भी नहीं बदला है और ना कभी कोशिश ही की है |

*L*** Acquisition Act -* एक अंग्रेज आया इस देश में उसका नाम था डलहौजी | ब्रिटिश पार्लियामेंट ने उसे एक ही काम के लिए भारत भेजा था कि तुम जाओ और भारत के किसानों के पास जितनी जमीन है उसे छिनकर अंग्रेजों के हवाले करो | डलहौजी ने इस "जमीन को हड़पने के कानून" को भारत में लागू करवाया, इस कानून को लागू कर के किसानों से जमीने छिनी गयी | जो जमीन किसानों की थी वो ईस्ट इंडिया कंपनी की हो गयी | डलहौजी ने अपनी डायरी में लिखा है कि " मैं गाँव गाँव जाता था और अदालतें लगवाता था और लोगों से जमीन के कागज मांगता था" |

और आप जानते हैं कि हमारे यहाँ किसी के पास उस समय जमीन के कागज नहीं होते थे क्योंकि ये हमारे यहाँ परंपरा से चला आ रहा था या आज भी है कि पिता की जमीन या जायदाद बेटे की हो जाती है, बेटे की जमीन उसके बेटे की हो जाती है | सब जबानी होता था, जबान की कीमत होती थी या आज भी है आप देखते होंगे कि हमारे यहाँ जो शादियाँ होती हैं वो सिर्फ और सिर्फ जबानी समझौते से होती है कोई लिखित समझौता नहीं होता है, एक दिन /तारीख तय हो जाती है और लड़की और लड़का दोनों पक्ष शादी की तैयारी में लग जाते है लड़के वाले निर्धारित तिथि को बारात ले के लड़की वालों के यहाँ पहुँच जाते है, शादी हो जाती है |

तो कागज तो किसी के पास था नहीं
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Wednesday, July 18, 2012

नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था?



नालंदा विश्वविद्यालय को क्यों जलाया गया था..? जानिए सच्चाई ...??
एक सनकी और चिड़चिड़े स्वभाव वाला तुर्क मियां लूटेरा था ....बख्तियार खिलजी. इसने ११९९ इसे जला कर पूर्णतः नष्ट कर दिया।
उसने उत्तर भारत में बौद्धों द्वारा शासित कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था.
एक बार वह बहुत बीमार पड़ा उसके हकीमों ने उसको बचाने की पूरी कोशिश कर ली ...
मगर वह ठीक नहीं हो सका.

किसी ने उसको सलाह दी... नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल श्रीभद्र जी को बुलाया जाय और उनसे भारतीय विधियों से इलाज कराया जाय
उसे यह सलाह पसंद नहीं थी कि कोई भारतीय वैद्य ...
उसके हकीमों से उत्तम ज्ञान रखते हो और वह किसी काफ़िर से .उसका इलाज करवाए फिर भी उसे अपनी जान बचाने के लिए उनको बुलाना पड़ा
उसने वैद्यराज के सामने शर्त रखी...
मैं तुम्हारी दी हुई कोई दवा नहीं खाऊंगा...
किसी भी तरह मुझे ठीक करों ...
वर्ना ...मरने के लिए तैयार रहो.
बेचारे वैद्यराज को नींद नहीं आई... बहुत उपाय सोचा...
अगले दिन उस सनकी के पास कुरान लेकर चले गए..
कहा...इस कुरान की पृष्ठ संख्या ... इतने से इतने तक पढ़ लीजिये... ठीक हो जायेंगे...!
उसने पढ़ा और ठीक हो गया ..
जी गया...

उसको बड़ी झुंझलाहट हुई...उसको ख़ुशी नहीं हुई
उसको बहुत गुस्सा आया कि ... उसके मुसलमानी हकीमों से इन भारतीय वैद्यों का ज्ञान श्रेष्ठ क्यों है...!

बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले ...उनको पुरस्कार देना तो दूर ...
उसने नालंदा विश्वविद्यालय में ही आग लगवा दिया ...पुस्तकालयों को ही जला के राख कर दिया...!

वहां इतनी पुस्तकें थीं कि ...आग लगी भी तो तीन माह तक पुस्तकें धू धू करके जलती रहीं
उसने अनेक धर्माचार्य और बौद्ध भिक्षु मार डाले.

आज भी बेशरम सरकारें...उस नालायक बख्तियार खिलजी के नाम पर रेलवे स्टेशन बनाये पड़ी हैं... !
उखाड़ फेंको इन अपमानजनक नामों को...
मैंने यह तो बताया ही नहीं... कुरान पढ़ के वह कैसे ठीक हुआ था.
हम हिन्दू किसी भी धर्म ग्रन्थ को जमीन पर रख के नहीं पढ़ते...
थूक लगा के उसके पृष्ठ नहीं पलटते
मिएँ ठीक उलटा करते हैं..... कुरान के हर पेज को थूक लगा लगा के पलटते हैं...!

बस...
वैद्यराज राहुल श्रीभद्र जी ने कुरान के कुछ पृष्ठों के कोने पर एक दवा का अदृश्य लेप लगा दिया था...
वह थूक के साथ मात्र दस बीस पेज चाट गया...ठीक हो गया और उसने इस एहसान का बदला नालंदा को नेस्तनाबूत करके दिया

आईये अब थोड़ा नालंदा के बारे में भी जान लेते है

यह प्राचीन भारत में उच्च् शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। महायान बौद्ध धर्म के इस शिक्षा-केन्द्र में हीनयान बौद्ध-धर्म के साथ ही अन्य धर्मों के तथा अनेक देशों के छात्र पढ़ते थे। वर्तमान बिहार राज्य में पटना से 88.5 किलोमीटर दक्षिण--पूर्व और राजगीर से 11.5 किलोमीटर उत्तर में एक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं शती में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी में यहाँ जीवन का महत्त्वपूर्ण एक वर्ष एक विद्यार्थी और एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किया था। प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था।
स्थापना व संरक्षण

इस विश्वविद्यालय की स्थापना का श्रेय गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम ४५०-४७० को प्राप्त है। इस विश्वविद्यालय को कुमार गुप्त के उत्तराधिकारियों का पूरा सहयोग मिला। गुप्तवंश के पतन के बाद भी आने वाले सभी शासक वंशों ने इसकी समृद्धि में अपना योगदान जारी रखा। इसे महान सम्राट हर्षवर्द्धन और पाल शासकों का भी संरक्षण मिला। स्थानिए शासकों तथा भारत के विभिन्न क्षेत्रों के साथ ही इसे अनेक विदेशी शासकों से भी अनुदान मिला।

स्वरूप
यह विश्व का प्रथम पूर्णतः आवासीय विश्वविद्यालय था। विकसित स्थिति में इसमें विद्यार्थियों की संख्या करीब १०,००० एवं अध्यापकों की संख्या २००० थी। इस विश्वविद्यालय में भारत के विभिन्न क्षेत्रों से ही नहीं बल्कि कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फारस तथा तुर्की से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। नालंदा के विशिष्ट शिक्षाप्राप्त स्नातक बाहर जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे। इस विश्वविद्यालय की नौवीं शती से बारहवीं शती तक अंतरर्राष्ट्रीय ख्याति रही थी।

परिसर
अत्यंत सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना था। इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी और उनके सामने अनेक भव्य स्तूप और मंदिर थे। मंदिरों में बुद्ध भगवान की सुन्दर मूर्तियाँ स्थापित थीं। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। अभी तक खुदाई में तेरह मठ मिले हैं। वैसे इससे भी अधिक मठों के होने ही संभावना है। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे। कमरे में सोने के लिए पत्थर की चौकी होती थी। दीपक, पुस्तक इत्यादि रखने के लिए आले बने हुए थे। प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी।

प्रबंधन
समस्त विश्वविद्यालय का प्रबंध कुलपति या प्रमुख आचार्य करते थे जो भिक्षुओं द्वारा निर्वाचित होते थे। कुलपति दो परामर्शदात्री समितियों के परामर्श से सारा प्रबंध करते थे। प्रथम समिति शिक्षा तथा पाठ्यक्रम संबंधी कार्य देखती थी और द्वितीय समिति सारे विश्वविद्यालय की आर्थिक व्यवस्था तथा प्रशासन की देख--भाल करती थी। विश्वविद्यालय को दान में मिले दो सौ गाँवों से प्राप्त उपज और आय की देख--रेख यही समिति करती थी। इसी से सहस्त्रों विद्यार्थियों के भोजन, कपड़े तथा आवास का प्रबंध होता था।

आचार्य
इस विश्वविद्यालय में तीन श्रेणियों के आचार्य थे जो अपनी योग्यतानुसार प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी में आते थे। नालंदा के प्रसिद्ध आचार्यों में शीलभद्र, धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति और स्थिरमति प्रमुख थे। 7वीं सदी में ह्वेनसांग के समय इस विश्व विद्यालय के प्रमुख शीलभद्र थे जो एक महान आचार्य, शिक्षक और विद्वान थे। एक प्राचीन श्लोक से ज्ञात होता है, प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट भी इस विश्वविद्यालय के प्रमुख रहे थे। उनके लिखे जिन तीन ग्रंथों की जानकारी भी उपलब्ध है वे हैं: दशगीतिका, आर्यभट्टीय और तंत्र। ज्ञाता बताते हैं, कि उनका एक अन्य ग्रन्थ आर्यभट्ट सिद्धांत भी था, जिसके आज मात्र ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ का ७वीं शताब्दी में बहुत उपयोग होता था।

प्रवेश के नियम
प्रवेश परीक्षा अत्यंत कठिन होती थी और उसके कारण प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश पा सकते थे। उन्हें तीन कठिन परीक्षा स्तरों को उत्तीर्ण करना होता था। यह विश्व का प्रथम ऐसा दृष्टांत है। शुद्ध आचरण और संघ के नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक था।

अध्ययन-अध्यापन पद्धति
इस विश्वविद्यालय में आचार्य छात्रों को मौखिक व्याख्यान द्वारा शिक्षा देते थे। इसके अतिरिक्त पुस्तकों की व्याख्या भी होती थी। शास्त्रार्थ होता रहता था। दिन के हर पहर में अध्ययन तथा शंका समाधान चलता रहता था।

अध्ययन क्षेत्र
यहाँ महायान के प्रवर्तक नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग तथा धर्मकीर्ति की रचनाओं का सविस्तार अध्ययन होता था। वेद, वेदांत और सांख्य भी पढ़ाये जाते थे। व्याकरण, दर्शन, शल्यविद्या, ज्योतिष, योगशास्त्र तथा चिकित्साशास्त्र भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत थे। नालंदा कि खुदाई में मिलि अनेक काँसे की मूर्तियोँ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि कदाचित् धातु की मूर्तियाँ बनाने के विज्ञान का भी अध्ययन होता था। यहाँ खगोलशास्त्र अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था।

पुस्तकालय
नालंदा में सहस्रों विद्यार्थियों और आचार्यों के अध्ययन के लिए, नौ तल का एक विराट पुस्तकालय था जिसमें ३ लाख से अधिक पुस्तकों का अनुपम संग्रह था। इस पुस्तकालय में सभी विषयों से संबंधित पुस्तकें थी। यह 'रत्नरंजक' 'रत्नोदधि' 'रत्नसागर' नामक तीन विशाल भवनों में स्थित था। 'रत्नोदधि' पुस्तकालय में अनेक अप्राप्य हस्तलिखित पुस्तकें संग्रहीत थी। इनमें से अनेक पुस्तकों की प्रतिलिपियाँ चीनी यात्री अपने साथ ले गये थे।
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Thursday, July 12, 2012

Kasmiri Pandit Untold Story


कश्मीरी पंडित की अनकही कहानी

मित्रों, आपको हम एक ऐसी दर्दनाक सच्चाई बताने जा रहे हैं जो देश के 99% लोगों को पता तक नहीं है। आप सभी ने शायद सुना तो होगा कश्मीरी पंडितो के बारे में। हम सभी ने सुना है की  " ...हाँ कुछ तो हुआ था कश्मीरी पंडितो के साथ.." ; लेकिन क्या हुआ था, क्यों हुआ था - यह ठीक से पता नहीं है। हम आपको यह बात विस्तार में बताने जा रहे है की क्या हुआ था कश्मीर में और क्या हुआ था कश्मीरी पंडितो के साथ।

पार्ट 1: कश्मीर का रक्तरंजित इतिहास
कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा था एवं कश्मीर के मूल निवासी सारे हिन्दू थे। कश्मीरी पंडितो की विरासत कम से कम 5000 साल पुरानी है एवं वे कश्मीर के मूल निवासी हैं। अतः यदि कोई कहे की भारत ने कश्मीर पर 'कब्ज़ा' कर लिया है यह सर्वदा मिथ्या है। 14वीं शताब्दी में तुर्किस्तान से आये एक क्रूर मुस्लिम आतंकी दुलुचा ने 60,000 की सेना के साथ कश्मीर पे आक्रमण किया और कश्मीर में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की।  दुलुचा ने नगरों एवं गावों को नष्ट कर दिया तथा हजारों हिन्दुओ का अमानवीय नरसंघार किया। बहुत सारे हिन्दुओ को बलपूर्वक यंत्रनाएं देकर मुस्लिम बनाया गया। बहुत सारे हिन्दुओ ने, जो इस्लाम कबूल नहीं करना चाहते थे,  जहर खाकर आत्महत्या कर ली और बाकी भाग गए। आज जो भी कश्मीरी मुस्लिम है उन सभी के पूर्वजो को इन अत्याचारों के कारण बलपूर्वक मुस्लिम बनाया गया था।

अधिक जानकारी के लिए यह विडियो आप देख सकते है




अधिक जानकारी के लिए इस लिंक को देखे - http://en.wikipedia.org/wiki/Kashmir#Etymology

 पार्ट 2: 1947 के समय कश्मीर1947 में ब्रिटिश संसद के "भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम"  के अनुसार ब्रिटेन ने तय किया की मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को पाकिस्तान बनाया जायेगा। 150 राजाओ ने पाकिस्तान चुना और बाकि 450 राजाओ  ने भारत। मात्र एक जम्मू और कश्मीर के राजा बच गए थे जो फैसला नहीं कर पा रहे थे। लेकिन जब पाकिस्तान ने फौज भेज कर कश्मीर पर आक्रमण किया तो कश्मीर के राजा ने भी हिंदुस्तान में कश्मीर के विलय के लिए दस्तख़त कर दिए। ब्रिटिशों ने यह कहा था की यदि राजा ने एक बार दस्तख़त कर दिए तो वो बदले नहीं सकते तथा इस विषय पे जनता की आम राय पूछने की आवश्यकता नहीं है। तो जिन कानूनों के आधार पर भारत और पाकिस्तान बने थे उन नियमो के अनुसार ही कश्मीर पूरी तरह से भारत का अंग बन गया था। इसलिए यदि कोई भी कहता है की कश्मीर पर भारत ने अनधिकृत कब्ज़ा कर रखा है वह सर्वथा मिथ्या है ।

अधिक जानकारी के लिए यह विडियो आप देख सकते है


पार्ट 3: सितम्बर 14, 1989
BJP के राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य और जाने माने वकील, कश्मीरी पंडित, तिलक लाल तप्लू की JKLF ने हत्या कर दी । तत्पश्चात जस्टिस नील कान्त गंजू को गोली मार दी गयी। इसी प्रकार सारे मुख्य कश्मीरी नेताओं की एक एक कर हत्या कर दी गयी। उसके बाद 300 से अधिक हिन्दू महिलाओ और पुरुषो की नृशंश हत्या की गयी। एक कश्मीरी पंडित नर्स जो श्रीनगर के सौर मेडिकल कोलेज अस्पताल में काम करती थी,  का एक भीड़  ने सामूहिक बलात्कार किया और उसके बाद मार मार कर उसकी हत्या कर दी। यह घिनौना ख़ूनी खेल चलता रहा और अपने सेकुलर राज्य और केंद्र सरकार, मीडिया ने कुछ नहीं किया। कुछ भी नहीं।

पार्ट 4: जनुअरी 4, 1990
आफताब, एक स्थानीय उर्दू अखबार, ने  हिज्ब - उल - मुजाहिदीन की तरफ से  एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की - "सभी हिन्दू अपना सामान बांधें और कश्मीर छोड़ कर चले जायें" । एक अन्य स्थानीय समाचार पत्र, अल सफा, ने इस निष्कासन के आदेश को दोहराया।  तत्पश्चात मस्जिदों में भारत एवं हिन्दू विरोधी भाषण दिए जाने लगे। सभी कश्मीरियों को कहा गया की इस्लामिक ड्रेस कोड अपनाएं। सिनेमा और विडियो-पार्लर आदि  बंद कर दिए गए। लोगों को कहा गया की वो अपनी घड़ी पाकिस्तान के समय के अनुसार करे लें। उस समय कश्मीर की फारूक अब्दुल्ला की सरकार आँखें फेरे चुप बैठी रही ।

अधिक जानकारी के लिए यह लिंक आप देख सकते है:- http://www.rediff.com/news/2005/jan/19kanch.htm

पार्ट 5: जनुअरी 19, 1990
सारे कश्मीरी पंडितो के घर के दरवाजो पर नोट लगा दिया जिसमे लिखा था "या तो मुस्लिम बन जाओ या कश्मीर छोड़ के भाग जाओ या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ"। पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधान मंत्री बेनज़ीर भुट्टो ने PTV पर कश्मीरी मुस्लिमों को भारत से आज़ादी के लिए भड़काना शुरू कर दिया। कश्मीर के सारे मस्जिदों में एक टेप चलाया गया जिसमे मुस्लिमो को कहा गया की वो हिन्दुओ को कश्मीर से निकाल बाहर करें या मार डालें । उसके बाद सारे कश्मीरी मुस्लिम सडको पर उतर आये - ये केवल आतंकवादी नहीं थे, ये कश्मीर का आम मुस्लिम थे ।

ये वो मुस्लिम थे जिनका कुछ दिन पहले तक हिन्दुओं के साथ उठाना-बैठना था, मित्रता थी , भाईचारा था । और मारे जाने वाले ये वो हिन्दू थे जो मुसलमान  को अपना भाई समझते थे, विश्वास करते थे , अपनी पढ़ी-लिखी आधुनिक एवं धर्मनिरपेक्ष सोच पे गर्व करते थे।

यह मुसलमान कश्मीर पंडितों के घरों में भीड़ बन के घुसे, घर के पुरुषों को बिठा कर वहीँ उनके सामने उनकी माँ-बेटियों-बहनों की एक-एक कर उनके सामने इज्ज़त लूटी , बलात्कार कर उनके सामने उनके घरवालों की हत्या कर दी, घर को लोगों सहित जला दिया। कई महिलाओं को लोहे के गरम सलाखों से मार दिया गया और उनके नग्न शरीर को पेड़ों से लटका दिया । मासूम बच्चों को स्टील के तार से गला घोटकर या दीवार पर सर पटक कर मारा। अपनी ऐसी अमानवीय दुर्गति से बचने के लिए कई कश्मीरी बहनों ने ऊंचे मकानों की छतों से कूद कर जान दे दी । वे सारे मुस्लिम, कश्मीरी हिन्दुओं की हत्या करते रहे और उस पर नारा लगाते चले गए की उनपर अत्याचार हुआ है और उनको भारत से आजादी चाहिए!!!

पार्ट 6: कश्मीरी पंडितो का पलायन
जब इतने खुले नरसंहार के पश्चात भी राज्य अथवा केंद्र से कोई सहायता नहीं आई तो कश्मीरी पंडितों के पास पलायन के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा । 350 ,000 कश्मीरी पंडित अपनी जान बचा कर कश्मीर से भाग गए। कश्मीरी पंडित जो कश्मीर के मूल निवासी है उन्हें कश्मीर छोड़ना पड़ा और तब भी कश्मीरी मुस्लिम कहते है की उन्हें आजादी चाहिए!!!

यह सब कुछ चलता रहा लेकिन धर्मनिरपेक्ष मीडिया चुप रही-उन्होंने देश के लोगो तक यह बात कभी नहीं पहुंचाई, इसलिए देश के लोगों को आज तक पता नहीं चल पाया की क्या हुआ था कश्मीर में। देश-विदेश के लेखक, तथाकथित बुद्धिजीवी चुप रहे, भारत का संसद चुप रहा, देश के सारे हिन्दू, मुस्लिम, सेकुलर चुप रहे। किसी ने भी 350,000 कश्मीरी पंडितो के बारे में कुछ नहीं कहा।

आज भी अपने देश की मीडिया 2002 के दंगो के रिपोर्टिंग में व्यस्त है। वो कहते है की गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगे हुए थे लेकिन यह कभी नहीं बताते की 750 मुस्लिमो के साथ साथ 250 हिन्दू भी मरे थे। यह भी कभी नहीं बताते की दंगो की शुरुआत मुस्लिमो ने की थी जब उन्होंने 59 हिन्दुओ को ट्रेन में गोधरा में जिन्दा जला दिया था। कहते हैं की हिन्दुओं पर अत्याचार की बात की रिपोर्टिंग से अशांति फैलेगी, लेकिन मुस्लिमों पर हुए अत्याचार की रिपोर्टिंग से अशांति नहीं फैलती। इसे कहते है सेकुलर (धर्मनिरपेक्ष) पत्रकारिता।

पार्ट 7: कश्मीरी पंडितो के आज की स्थिति
आज 4.5 लाख कश्मीरी पंडित अपने ही देश में ही शरणार्थी की तरह रह रहे है। पूरे देश-विदेश में कोई भी नहीं है उनको देखने वाला। कोई भी मीडिया नहीं है जो उनके बारे में हुए अत्याचार को बताये। कोई भी सरकार या पार्टी या संस्था नहीं है जो की विस्थापित कश्मीरियों को उनके पूर्वजों की भूमि में वापस ले जाने को तैयार है। कोई भी नहीं इस इस दुनिया में जो कश्मीरी पंडितो के लिए "न्याय" की मांग करे। कश्मीरी पंडित काफी-पढ़े लिखे लोगों के तरह जाने जाते थे आज वो नितांत निर्धनों की तरह पिछले २२ सालो से टेंट में रह रहे है। उन्हें मुलभुत सुविधाए भी नहीं मिल पा रही है, पिने के लिए पानी तक की समस्या है, दूषित नालों के बीच निर्वाह करने को बाध्य हैं । भारतीय और विश्व मीडिया, मानवाधिकार संस्थाए आदि गुजरात दंगो में मरे 750 मुस्लिमो की बात करते है (वो भी मारे गए 310 हिन्दुओ को भूलकर) । लेकिन यहाँ हजारों मारे गए और ४.५ लाख विस्थापित कश्मीरी पंडितो की बात करने वाला कोई नहीं है क्योकि वो हिन्दू है। 20 ,000 कश्मीरी हिन्दू तो बस धुप की गर्मी के कारण मर गए क्योकि वो कश्मीर के ठन्डे मौसम में रहने के आदि थे।

अधिक जानकारी के लिए यह विडियो आप देख सकते है


पार्ट 8: कश्मीरी पंडितो और सेना के खिलाफ मीडिया का सद्यन्त्र
आज देश के लोगो को भारतीय मीडिया कश्मीरी पंडितो के मानवाधिकार-हनन के बारे में नहीं बताती है लेकिन आंतकवादियों के मानवाधिकार के बारे में अपनी आवाज जरूर उठाती है । आज सभी को यह बताया जा रहा है की AFSPA नाम का किसी कानून का भारतीय सेना काफी ज्यादा दुरूपयोग किया है.. कश्मीर में अलगावादी संगठन मासूम लोगो की हत्या करवाते है.और भारतीय सेना के जवान जब उन आतंकियों और उनके सहयोगियों  के विरुद्ध कोई करवाई करते है.. तो यह देशद्रोही अलगावादी नेता अपने बिकी हुए मीडिया की सहायता से चीखना-चिल्लाना शुरू कर देते हैं की " देखो हमारे ऊपर कितना अत्याचार हो रहा है " !!!

मित्रो बात यहाँ तक नहीं रुकी है. अश्विन कुमार जैसे कुछ फिल्म निदेशक "इंशाल्लाह कश्मीर" नामक भारत विरोधी वृत्तचित्र बना रहे हैं जिससे यह पुरे विश्व की लोगो को यह दिखा रहे है की कश्मीर के भोले-भाले मुस्लिम युवाओं पर भारतीय सेना के जवानों ने अत्याचार किया है। अश्विन कुमार अपने वृत्तचित्र को पूरे विश्व के पटल पर रख रहे है । हर तरह से देश-विदेश में लोगों को दिखा रहे है की अन्याय भारतीय सेना ने किया है। जो सच है उसे वो बिलकुल छिपा दे रहे हैं।

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सारे मुस्लिम कहते है मोदी को फांसी दो जबकि मोदी ने गुजरात की दंगो को समय रहते रोक दिया। आज तक एक भी मुस्लिम को यह कहते नहीं सुना गया की कांग्रेस के नेताओं, गाँधी परिवार और अब्दुल्लाह परिवार को फांसी दो। जो लाखो कश्मीरी पंडितो के नरसंहार को देखते रहे ! मित्रो इस घटना को अगर आप पढ़ चुके है तो अपने बाकि मित्रो एवं परिवारजनों को बताएं,शेयर करें, सत्य से अवगत कराएं। जो कश्मीर में हुआ था वाही आज मुस्लिम-बहुल केरला, पश्चिम बंगाल, हैदराबाद, उत्तर प्रदेश में हो रहा है। हिन्दुओं पर आज देश के कई जगहों में अत्याचार हो रहा है। लेकिन सेकुलर मीडिया इसे दबा देती है इसलिए आपको और हमें कुछ पता नहीं चल पता है। हमारा या आपका कोई दोष भी नहीं है-यदि हमें कुछ पता ही नहीं चलेगा तो हम करेंगे क्या? आज जितनी भी प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया है अधिकाँश को सउदी अरब से पैसा मिलता है। यह सेकुलर मीडिया हिन्दुओ  के विनाश के बाद ही रुकेगी क्योकि कोई भी हिन्दू संस्था, पार्टी कभी मीडिया-प्रसार पर ध्यान ही नहीं देती। आज की सेकुलर मीडिया आधी जिहादियो और आधी कोंग्रेसियों के नियत्रण में है। हिन्दुओ के साथ हो रहे अत्याचार को बताने के लिए एक भी टीवी या प्रिंट मीडिया नहीं है।
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