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Monday, June 17, 2013

हिन्दु सम्राट पृथ्वीराज चौहान (सन् 1149-1192)

हिन्दु सम्राट पृथ्वीराज चौहान (सन् 1149-1192)


हिन्दु सम्राट पृथ्वीराज चौहान (सन् 1149-1192)

हिन्दुओ के सम्राट पृथ्वीराज चौहान (सन् 1149-1192) चौहान वंश के हिंदू क्षत्रिय राजा थे जो उत्तरी भारत में 12 वीं सदी के उत्तरार्ध के दौरान अजमेर और दिल्ली पर राज्य करते थे।

पृथ्वीराज को 'राय पिथौरा' भी कहा जाता है। वह चौहान राजवंश का प्रसिद्ध राजा थे। पृथ्वीराज चौहान का जन्म अजमेर राज्य के वीर राजपूत महाराजा सोमश्वर के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम कपूरी देवी था जिन्हेँ पूरे बारह वर्ष के बाद पुत्र रत्न कि प्राप्ति हुई थी। पृथ्वीराज के जन्म से राज्य मेँ राजनीतिक खलबली मच गई उन्हेँ बचपन मेँ ही मारने के कई प्रयत्ऩ किए गए पर वे बचते गए। पृथ्वीराज चौहान जो कि वीर राजपूत योधा थे बचपन से ही वीर और तरवारबाजी के शौकिन थे। उन्होँने बाल अव्सथा मेँ ही शेर से लड़ाई कर उसका जबड़ा फार डाला पृथ्वीराज ने अपनी राजधानी दिल्ली का नवनिर्माण किया कहा जाता है कि पृथ्वीराज की सेना में तीन सौ हाथी तथा 3,00,000 सैनिक थे, जिनमें बड़ी संख्या में घुड़सवार भी थे.

तराइन का प्रथम युद्ध (गौरी की पराजय)
थानेश्वर से १४ मील दूर और सरहिंद के किले के पास तराइन नामक स्थान पर यह युद्ध लड़ा गया। तराइन के इस पहले युद्ध में राजपूतो ने गौरी की सेना के छक्के छुड़ा दिए। गौरी के सैनिक प्राण बचा कर भागने लगे। जो भाग गया उसके प्राण बच गए, किन्तु जो सामने आया उसे गाजर-मुली की तरह कट डाला गया। मुहम्मद गौरी युद्ध में बुरी तरह घायल हुआ।

अपने ऊँचे तुर्की घोड़े से वह घायल अवस्था में गिरने ही वाला था की युद्ध कर रहे एक उसके सैनिक की दृष्टि उस पर पड़ी। उसने बड़ी फुर्ती के साथ सुल्तान के घोड़े की कमान संभल ली और कूद कर गौरी के घोड़े पर चढ़ गया और घायल गौरी को युद्ध के मैदान से निकाल कर ले गया। नेतत्वविहीन सुल्तान की सेना में खलबली मच चुकी थी। तुर्क सेनिक राजपूत सेना के सामने भाग खड़े हुए।

पृथ्वीराज की सेना ने ८० मील तक इन भागते तुर्कों का पीछा किया। पर तुर्क सेना ने वापस आने की हिम्मत नहीं की। इस तरह चौहान ने गोरी को १७ बार खदेड़ा, राजपुता की प्रथा है की वो निहत्थे दुश्मन पर हमला नहीं करते थे .इसी का फयदा उठाकर गोरी बार बार बचता गया और सम्राट चौहान के पेरो में गिर कर माफ़ी मांग लेता...

पृथ्वीराज चौहान द्वारा राजकुमारी संयोगिता का हरण करके इस प्रकार कनौज से ले जाना रजा जयचंद को बुरी तरह कचोट रहा था। उसके ह्रदय में अपमान के तीखे तीर से चुभ रहे थे। वह किसी भी कीमत पर पृथ्वीराज का विध्वंश चाहता था। भले ही उसे कुछ भी करना पड़े। जयचंद ने राजपूतो के सभी भेद खोल दिए और गोरी की खुल कर मदत की. भयंकर युद्ध के बाद चौहान तथा राज कवि चंदबरदाई को बंदी बना लिया गया। युद्धबंधी के रूप में उसे गौरी के सामने ले जाया गया। जहाँ उसने गौरी को घुर के देखा। गौरी ने उसे आँखें नीची करने के लिए कहा।

पृथ्वीराज ने कहा की राजपूतो की आँखें केवल मृत्यु के समय नीची होती है। यह सुनते ही गौरी आगबबुला होते हुए उठा और उसने सेनिको को लोहे के गरम सरियों से उसकी आँखे फोड़ने का आदेश दिया। असल कहानी यहीं से शुरू होती है। पृथ्वीराज को रोज अपमानित करने के लिए रोज दरबार में लाया जाता था। जहाँ गौरी और उसके साथी पृथ्वीराज का मजाक उड़ाते थे। उन दिनों पृथ्वीराज अपना समय अपने जीवनी लेखक और कवी चंद् बरदाई के साथ बिताता था। चंद् ने 'पृथ्वीराज रासो' नाम से उसकी जीवनी कविता में पिरोई थी। उन दोनों को यह अवसर जल्द ही प्राप्त हो गया जब गौरी ने तीरंदाजी का एक खेल अपने यहाँ आयोजित करवाया।

पृथ्वीराज ने भी खेल में शामिल होने की इच्छा जाहिर की परन्तु गौरी ने कहा की वह कैसे बिना आँखों के निशाना साध सकता है। पृथ्वीराज ने कहा की यह उनका आदेश है। पर गौरी ने कहा एक राजा ही राजा को आदेश दे सकता है तब चाँद ने पृथ्वीराज के राजा होने का वर्तन्त कहा। गौरी सहमत हो गया और उसको दरबार में बुलाया गया। वहां गौरी ने पृथ्वीराज से उसके तीरंदाजी कौशल को प्रदर्शित करने के लिए कहा। चंद बरदाई ने पृथ्वीराज को कविता के माध्यम से प्रेरित किया।

जो इस प्रकार है-
"चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण,
ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।"

पृथ्वीराज चौहान ने तीर को गोरी के सीने में उतार दिया और वो वही तड़प तड़प कर मर गया ।

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ये हैँ हिँदुस्तान मेरी जान
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Friday, June 15, 2012

खुदीराम बोस



श्री त्रिलोक्यनाथ बोस के पुत्र रूप में खुदीराम बोस का जन्म 3दिस्म्बर,1889 को ग्राम्य हबीबपुर,जनपद-मिदनापुर,प0बंगाल में हुआ।स्वदेशी आन्दोलन में शिरकत करने के लिए खुदीराम बोस ने नवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी।माता व पिता दोनो जनों का स्वर्गवास अल्पायु में ही हो गया।खुदीराम बोस का जन्म भारत वर्ष में आजादी के लिए लड़ने व क्रांति मार्ग को प्रज्जवलित करने के लिए ही हुआ था।

28फरवरी,1906 को ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ परचा बांटने के जुर्म में पुलिस सिपाही ने आपको पकड़ लिया।इस समय मात्र 15वर्षीय खुदीराम बोस ने सिपाही को एक जोरदार तमाचा मारा और उससे अपना हाथ छुड़ा कर भाग निकले।1अप्रैल,1906 को मिदनापुर के जिलाधीश की उपस्थिति में भी खूदीराम बोस ने वन्देमातरम् का उद्घोष किया व पर्चे बांटे तथा वहां से भी फरार हो लिए।31मई,1906 को छात्रावास में सोते समय ही पुलिस खुदीराम बोस को गिरफतार कर पाई थी।बंग-भंग आंदोलन के समय कलकत्ता का मुख्य मजिस्टेट किंग्सफोर्ड था।इसके दमन चक्र ने सारी हदें तोड़ दी थी।28मार्च,1908 को किंग्सफोर्ड़ का तबादला मुजफफरपुर,बिहार कर दिया गया।

खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी को किंग्सफोर्ड़ को मारने का कार्य सौंपी गया।30अप्रैल,1908 को रात के 8बजे दोनों लोग यूरोपीयन क्लब पहुंचे । वहां किंग्सफोर्ड़ की गाड़ी के धोखें में कैनेड़ी परिवार की गाड़ी को बम चलाकर नष्ट कर दिया।फिर चाकी समस्तीपुर स्टेशन की तरफ तथा खुदीराम बोस बेनीपुर स्टेशन की तरफ भागे।चाकी ने 1मई,1908 को पुलिस द्वारा पकड़े जाने अपनी ही गोली से अपनी जान दे दी।उधर 20-25 किमी पैदल चनने के बाद पुलिस के दो सिपाहियों ने खुदीराम बोस को दो रिवाल्वर,37कारतूस व नक्शों के साथ हिरासत में लिया।खुदीराम बोस को 21मई,1908 को मुजफफरपुर के मजिस्टेट के सामने पेश किया गया।वहां से अपराध स्वीकृति के बाद 25मई,1908 को सेशन्स कोर्ट भेजा गया तथा 8जून,1908 को सेशन्स कोर्ट में सुनवाई हुई।जज ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा दी।6जुलाई,1908 को हाईकोर्ट में अपील की गई।जिसकी सुनवाई 13जुलाई,1908 को हुई।अभी खुदीराम की उम्र 18 वर्ष की भी नहीं थी लेकिन फांसी की सजा हाईकोर्ट ने बरकरार रखी।


फांसी के दिन 11अगस्त,1908 को खुदीराम बोस का वनज दो पौण्ड़ बढ़ गया था।प्रातः6बजे उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया था।गंड़क नदी के तट पर खुदीराम बोस के वकील श्री करलीदास मुखर्जी ने उनके चिता में आग लगाई।हजारों की संख्या में युवकों का समूह एकत्रित था।चिता की आग से निकली चिंगारियां सम्पूर्ण भारत में फैली।चिता की भस्मी को लोगों ने अपने माथे पर लगाया,पुड़िया बांध कर घर ले गये।खुदीराम बोस ही प्रथम शख्स हैं जिन्होंने बीसवीं सदी में आजादी के लिए फांसी के तख्ते पर अपने प्राणों की आहुति दी थी।
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस



यूँ तो नेताजी कब इस दुनिया को छोड़ गये यह आज भी रहस्य बना हुआ है | लेकिन ऐसा मना जाता है कि18 अगस्त या  16 सितम्बर 1945को आजादी के महानायक नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि है | नेताजी 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में पैदा हुए । उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती देवी था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। उन्होंने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर के खिताब से नवाजा था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थें।

स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ाव
कोलकाता के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष, दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की थी। वह रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर भारत वापस आए और सर्वप्रथम मुम्बई जा कर महात्मा गाँधी से मिले। मुम्बई में गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ, 20 जुलाई 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई। गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू कोलकाता आ गए और दासबाबू से मिले। दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों गाँधीजी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया था। दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए।

1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए, कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।

बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की।

1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह माँग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में जब कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।

26 जनवरी 1931 के दिन कोलकाता में सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फाँसी माफ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को तैयार नहीं थे। अंततः भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी दे दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने के कारण सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तौर-तरीकों से बहुत नाराज हो गए।

कारावास
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। सबसे पहले उन्हें 1921 में छः महिने की जेल हुई।

1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्ल्स टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दे दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव माँगकर उसका अंतिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ों ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों के नेता हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित काल के लिए म्यांमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।

5 नवंबर 1925 को देशबंधू चित्तरंजन दास का कोलकाता में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर मंडाले जेल में रेडियो पर सुनी। मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो जाने के बावजूद अंग्रेज़ सरकार ने रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए यूरोप चलें जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में परिस्थिति इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यु हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज के लिए डलहौजी चले गए।

1930 में कारवास के दौरान ही सुभाषबाबू को कोलकाता का महापौर चुन लिया गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी।

1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर खराब हो गयी। चिकित्सकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए यूरोप जाने को राजी हो गए।यूरोप प्रवास

1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे। यूरोप में भी आंदोलन कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी. वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।

जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।

बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिसमें उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।

विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उस पर अदालत में मुकदमा चलाया। मुकदमा जीतकर पटेल ने सारी संपत्ति गाँधीजी के हरिजन कार्य को भेंट कर दी।

1934 में अपने पिता की मृत्यु की खबर पाकर सुभाषबाबू कोलकाता लौटे। कोलकाता पहुँचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिनों तक जेल में रखने के बाद वापस यूरोप भेज दिया।

कांग्रेस का अध्यक्ष पद
सन 1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का ५१वां अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया।

इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो। अपने अध्यक्ष पद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे।

कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा
1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धति पसंद नहीं आयी। इसी दौरान यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। हालांकि, गाँधीजी उनके इस विचार से सहमत नहीं थे।

1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ति अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसा कोई दूसरा व्यक्ति सामने न आने पर सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष पर बने रहना चाहा। लेकिन गाँधीजी अब उन्हें अध्यक्ष पद से हटाना चाहते थे। गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सीतारमैय्या को चुना। रविंद्रनाथ ठाकुर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने का निवेदन किया। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझौता न हो पाने के कारण कई वर्षों बाद पहली बार कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ।

सब यही जानता थे कि महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया है इसलिए वह चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में हुआ इसके ठीक विपरीत, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिले जबकि पट्टाभी सीतारमैय्या को 1377 मत मिले। गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।

मगर, बात यहीं खत्म नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सीतारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर अपने साथियों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू की कार्यपद्धति से सहमत नहीं हैं तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहे और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बने रहे।

1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड़ गए थे, कि उन्हें स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथियों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया।

अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझौते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन गाँधीजी और उनके साथियों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिति ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर 29 अप्रैल 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।

फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
3 मई 1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाल दिया गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।

द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए जनजागरण शुरू कर दिया। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। मजबूर होकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हें उनके ही घर में नजरबंद कर दिया।

नजरबंदी से पलायन
नजरबंदी से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे़ बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर ने उनकी मुलाकात कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कराई। भगतराम तलवार के साथ में सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे़। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे।

काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होंने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर उन्होंने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की। इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर सुभाषबाबू काबुल से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होते हुए जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँच गए।

हिटलर से मुलाकात
उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।

आखिर, 29 मई 1942 को सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूचि नहीं थी। उन्होंने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।

कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ति से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।

अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हें कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए 8 मार्च 1943 को जर्मनी के कील बंदर में अपने साथी आबिद हसन सफरानी के साथ एक जर्मन पनडुब्बी में बैठकर पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनडुब्बी तक पहुँच गए। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।

पूर्व एशिया में अभियान
पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।

जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिनों पश्चात नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।

21 अक्तूबर 1943 को नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए। आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे़ हुए भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।

पूर्व एशिया में नेताजी ने जगह-जगह भाषण करके वहाँ भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद करने का आह्वान किया। उन्होंने अपने आह्वान में संदेश दिया- तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। नेताजी ने इन द्वीपों का नाम शहीद और स्वराज द्वीप रखा। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनो फौजो को पीछे हटना पड़ा।

जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकडों मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।

6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता का संबोधन कर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा। इस प्रकार नेताजी ने गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।

मृत्यु का अनुत्तरित रहस्य
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के के बाद से ही उनका कुछ भी पता नहीं चला।

23 अगस्त 1945 को जापान की दोमेई समाचार संस्था ने बताया कि 18 अगस्त को नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ली।

दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्चय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं हो सके। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी टोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।

स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए 1956 और 1977 में दो बार आयोग का गठन किया। दोनों बार यह नतीजा निकला कि नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस ताइवान देश की सरकार से, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।

1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु, उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
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लालबहादुर शास्त्री



लालबहादुर शास्त्री जी 2 अक्तूबर 1904 को मुगलसराई में पैदा हुए थे | स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (1904-1966) की जीवन-गाथा एक सामान्य व्यक्ति की असामान्य गाथा है। इस व्यक्ति ने अपने प्रारंभिक जीवन में गरीबी की आग की झुलस को झेलते हुए केवल नैतिक सिद्धान्तों के बल पर असाधारण राजनैतिक ऊँचाई हासिल की। शास्त्री जी अपने पीछे न कोई धन-संपत्ति छोड़ गये, न कोई बैंक-बैलेंस। हाँ, हर तरह के भ्रष्टाचार के बोलबाले वाले आज के माहौल में राजनीति का चक्कर चलाने वालों के लिए एक मिसाल जरूर कायम कर गये। क्या आज का राजनेता इससे कुछ सीखना चाहेगा।

केवल 19 महीने प्रधानमंत्री रहे शास्त्री जी का कार्यकाल सरगर्मियों से भरा, तेज गतिविधियों का काल था। इस काल के दरम्यान राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय अहमियत के कई सामाजिक तथा राजनैतिक मसलों ने सिर उठाया, जिसमें पाकिस्तान के खिलाफ एक बड़ा युद्ध भी शामिल है।आज़ादी के १८ साल तक नेहरू के आभामंडल में भारत बहुत कुछ खो चुका था . १९६२ चीन ने पंचशील की लाश पर भारत के ऊपर हमला किया . हमारे नेहरू का रेडियो पर भाषण के हम बहादुरी से लड़ रहे है और पीछे हट रहे है . उस समय की हमारी इच्छा शक्ति का हमारे नेतृत्व का नंगा सच था . हमारे हजारो सैनिक शहीद हो गए और हम अक्षय चीन सहित हजारो किलोमीटर भूमि को हार गए और एक हारा हुआ हिन्दुस्तान था सामने .

६४ में नेहरू के स्वर्गवास के बाद नेहरू के बिना भारत कैसा होगा के बीच देश के बहादुर लाल – लाल बहादुर शास्त्री ने कमान संभाली . उस समय देश का मनोबल टूटा हुआ था अकाल था भुकमरी थी . लेकिन शास्त्री जी की अदम्य इच्छा शक्ति भारत सम्हलने लगा . जय किसान जय जवान का नारा एक नई प्राण वायु का संचार हुआ . मंगलवार को उपवास अन्न की कमी के कारण जनता ने सहर्ष अपनाया . ईमानदार शास्त्री जी के कारण एक नया १८ साल का बालिग़ भारत नए सपने देखने लगा . तभी सन ६५ में पाकिस्तान ने भारत पर अमरीका के वरदहस्त पर हमला कर दिया . पाकिस्तान अपने अमरीकी पैटर्न टैंक हो अभेद था के बल पर भारत को कब्जाने के लिए आ गया . तभी एक आवाज़ गूंजी ईट का जबाब पत्थर से देंगे .जय जवानो ने पाकिस्तान को हरा दिया . उनके पैटर्न टैंक आज भी सडको पर टूटे पड़े है . वीर सैनिको की वीरता के पीछे लाल बहादुर शास्त्री के अदम्य साहस और इच्छा शक्ति थी . हम आज़ादी के बाद पहली लड़ाई जीते थे . फिर ताशकंद में शान्ति वार्ता हुई . क्या हुआ क्या नहीं लेकिन हमने युद्ध तो जीत लिया लेकिन देश का बहादुर लाल अपना लाल बहादुर खो दिया .

बचपन से नैतिक सिद्धांतों का पालन करने वाले थे शास्त्री जी
गंगा के किनारे खड़ी नाव में सभी यात्री बैठ चुके थे। बगल में ही युवक खड़ा था। नाविक ने उसे बुलाया, पर चूंकि उसके पास नाविक को उतराई देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह नाव में नहीं बैठा और तैरकर घर पहुंचा।

नाव गंगा के पार खड़ी थी। लगभग सभी यात्री बैठ चुके थे। नाव के बगल में ही एक युवक खड़ा था। नाविक उसे पहचानता था। इसलिए उस दिन भी नाविक ने उससे कहा- खड़े क्यों हो? नाव में आ जाओ। क्या रामनगर नहीं जाना है? युवक बोला- जाना तो है किंतु आज मैं तुम्हारी नाव से नहीं जा सकता। नाविक ने पूछा- क्यों भैया, आज क्या बात हो गई? युवक बोला- आज मेरे पास उतराई देने के लिए पैसे नहीं हैं।

नाविक ने कहा- अरे, यह भी कोई बात हुई। आज नहीं तो कल दे देना, किंतु युवक ने सोचा कि मां बड़ी मुश्किल से मेरी पढ़ाई का खर्च जुटाती है। कल भी यदि रुपए की व्यवस्था न हुई तो कहां से दूंगा? उसने नाविक को इंकार कर दिया और अपनी कॉपी-किताबें लेकर छपाक से नदी में कूद गया। नाविक देखता ही रह गया। पूरी गंगा नदी पार कर युवक रामनगर पहुंचा। वहां तट पर कपड़े निचोड़कर भीगी अवस्था में ही घर पहुंचा।

मां रामदुलारी बेटे को इस दशा में देख चिंतित हो उठी। कारण पूछने पर सारी बात बताकर युवक बोला- तुम्हीं बताओ मां, अपनी मजबूरी मल्लाह के सिर पर क्यों ढोना? वह बेचारा खुद गरीब आदमी है। बिना उतराई दिए उसकी नाव में बैठना उचित नहीं था। इसलिए गंगा पार करके आ गया। मां ने पुत्र को सीने से लगाते हुए कहा- बेटा! तू एक दिन जरूर बड़ा आदमी बनेगा। वह युवक लालबहादुर शास्त्री थे, जो भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बने और मात्र अठारह माह में देश को प्रगति की राह दिखा दी। वस्तुत: ईमानदारी महान गुण है। जो व्यक्ति अपने विचार और आचरण में नैतिक सिद्धांतों के प्रति ईमानदार रहता है वही सही अर्थो में बड़ा बनता है

अपनी जिम्मेदारी का अहसास रखने वाले युगपुरुष
छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया।

बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे पीट दिया।

नन्हे बच्चे ने माली से कहा – “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!” यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला – “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”

माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।

उसी दिन से बच्चे ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वह कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेगा जिससे किसी का कोई नुकसान हो। बड़ा होने पर वही बालक भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति के आन्दोलन में कूद पड़ा। एक दिन उसने लालबहादुर शास्त्री के नाम से देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया|

भारत के लाल की मौत का रहस्य
पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत का रहस्य सुलझने के बजाय और गहरा गया है। अब उनके परिवार के सदस्यों ने सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी को यह कहकर नहीं दिए जाने को गंभीरता से लिया है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जुड़ी जानकारी को सार्वजनिक किया जाएगा, तो इसके कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान और देश में गड़बड़ी हो सकती है।

दिवंगत लालबहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री ने कहा कि दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री उनके पिता ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लोकप्रिय नेता थे। आज भी वह या उनके परिवार के सदस्य कहीं जाते हैं, तो हमसे उनकी मौत के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। लोगों के दिमाग में उनकी रहस्यमय मौत के बारे में संदेह है, जिसे स्पष्ट कर दिया जाए तो अच्छा ही होगा।

दिवंगत शास्त्री के भांजे सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने देश में गड़बड़ी की आशंका जताकर, जिस तरह से सूचना देने से इनकार किया है, उससे यह मामला और गंभीर हो गया है। उन्होंने कहा कि वह ही नहीं, बल्कि देश की जनता जानना चाहती है कि आखिर उनकी मौत का सच क्या है।

उन्होंने कहा कि यह भी हैरानी की बात है कि जिस ताशकंद समझौते के लिए पूर्व प्रधानमंत्री गए थे, उसकी चर्चा तक क्यों नहीं होती है।

उल्लेखनीय है कि ‘सीआईएज आई ऑन साउथ एशिया’ के लेखक अनुज धर ने सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत सरकार से स्व: शास्त्री की मौत से जुड़ी जानकारी मांगी थी। इस पर प्रधानमंत्री कार्यालय ने यह कहकर सूचना सार्वजनिक करने से छूट देने की दलील दी है कि अगर दिवंगत शास्त्री की मौत से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक किए गए, तो इस कारण विदेशी रिश्तों को नुकसान, देश में गड़बड़ी और संसदीय विशेषाधिकार का हनन हो सकता है।

सरकार ने यह स्वीकार किया है कि सोवियत संघ में दिवंगत नेता का कोई पोस्टमार्टम नहीं कराया गया था, लेकिन उसके पास पूर्व प्रधानमंत्री के निजी डॉक्टर आरएन चुग और रूस के कुछ डॉक्टरों द्वारा की गई चिकत्सीय जांच की एक रिपोर्ट है।

धर ने प्रधानमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत यह सूचना भी मांगी है कि क्या दिवंगत शास्त्री की मौत के बारे में भारत को सोवियत संघ से कोई सूचना मिली थी। उनको गृह मंत्रालय से भी मांगी गई ये सूचनाएं अभी तक नही मिली हैं कि क्या भारत ने दिवंगत शास्त्री का पोस्टमार्टम कराया था और क्या सरकार ने गड़बड़ी के आरापों की जांच कराई थी।

वैसे आधिकारिक तौर पर 11 जनवरी, 1966 को दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री की मौत दिल का दौरा पड़ने से उस समय हुई, जब वह ताशकंद समझौते के लिए रूस गये थे। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी ललिता शास्त्री ने आरोप लगाया था कि उनके पति को जहर देकर मारा गया है।
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चन्द्रशेखर आजाद



चन्द्रशेखर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उच्च शिक्षा के लिए वे काशी जाना चाहते थे। लेकिन, इकलौती संतान होने के कारण माता-पिता ने उन्हें काशी जाने से साफ मना कर दिया। धुन के पक्के चन्द्रशेखर ने चुपचाप काशी की राह पकड़ ली और वहां जाकर अपने माता-पिता को कुशलता एवं उसकी चिन्ता न करने की सलाह भरा पत्र लिख दिया। उन दिनों काशी में कुछ धर्मात्मा पुरूषों द्वारा गरीब विद्यार्थियों के ठहरने, खाने-पीने एवं उनकी पढ़ाई का खर्च का बंदोबस्त किया गया था। चन्द्रशेखर को इन धर्मात्मा लोगों का आश्रय मिल गया और उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन मन लगाकर करना शुरू कर दिया। आज हम जिस गौरव और स्वाभिमान के साथ आजादी का आनंद ले रहे हैं, वह देश के असंख्य जाने-अनजाने महान देशभक्तों के त्याग, बलिदान, शौर्य और शहादतों का प्रतिफल है। काफी देशभक्त तो ऐसे थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया।

इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के बदरका नामक गाँव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी के घर श्रीमती जगरानी देवी की कोख से हुआ। चाँद के समान गोल और कांतिवान चेहरे को देखकर ही इस नन्हें बालक का नाम चन्द्रशेखर रखा गया। पिता पंडित सीताराम पहले तो अलीरापुर रियासत में नौकरी करते रहे, लेकिन बाद में भावरा नामक गाँव में बस गए। इसी गाँव में चन्द्रशेखर आजाद का बचपन बीता। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में बचपन बीतने के कारण वे तीरन्दाजी व निशानेबाजी में अव्वल हो गए थे।

सन् 1921 में देश में गांधी जी का राष्ट्रव्यापी असहयोग आन्दोलन चल रहा था तो स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने का दृढ़ सकल्प देशभर में लिया गया। अंग्रेजी सरकार द्वारा आन्दोलकारियों पर बड़े-बड़े अत्याचार किए जाने लगे। ब्रिटिश सरकार के जुल्मों से त्रस्त जनता में राष्ट्रीयता का रंग चढ़ गया और जन-जन स्वाराज्य की पुकार करने लगा। विद्याार्थियों में भी राष्ट्रीयता की भावना का समावेश हुआ। पन्द्रह वर्षीय चन्द्रशेखर भी राष्ट्रीयता व स्वराज की भावना से अछूते न रह सके। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई के दौरान पहली बार राष्ट्रव्यापी आन्दोलनकारी जत्थों में भाग लिया। इसके लिए उन्हें 15 बैंतों की सजा दी गई। हर बैंत पड़ने पर उसने ‘भारत माता की जय’ और के नारे लगाए। उस समय वे मात्र पन्द्रह वर्ष के थे। सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा चौरा-चौरी की घटना के बाद एकाएक असहयोग आन्दोलन वापिस लेने पर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर वैचारिक तौरपर उग्र हो उठे और उन्होंने क्रांतिकारी राह चुनने का फैसला कर लिया। उसने सन् 1924 में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी आदि क्रांतिकारियों द्वारा गठित ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन’ (हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ) की सदस्यता ले ली।यह सभी क्रांतिकारी भूखे-प्यासे रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में दिनरात लगे रहते।

इसी दौरान क्रांतिकारियों ने बनारस के मोहल्ले में ‘कल्याण आश्रम’ नामक मकान में अपना अड्डा स्थापित कर लिया। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को धोखा देने के लिए आश्रम के बाहरी हिस्से में तबला, हारमोनियम, सारंगी आदि वाद्ययंत्र लटका दिए। एक दिन रामकृष्ण खत्री नामक साधू ने बताया कि गाजीपुर में एक महन्त हैं और वे मरणासन्न हैं। उसकी बहुत बड़ी गद्दी है और उसके पास भारी संख्या में धन है। उसे किसी ऐसे योग्य शिष्य की आवश्यकता है, जो उसके पीछे गद्दी को संभाल सके। यदि तुममें से ऐसे शिष्य की भूमिका निभा दे तो तुम्हारी आर्थिक समस्या हल हो सकती है। काफी विचार-विमर्श के बाद इस काम के लिए चन्द्रशेखर आजाद को चुना गया। चन्द्रशेखर न चाहते हुए भी महन्त के शिष्य बनने के लिए गाजीपुर रवाना हो गए।

चन्द्रशेखर के ओजस्वी विचारों एवं उसके तेज ने महन्त को प्रभाव में ले लिया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। चन्द्रशेखर मन लगाकर महन्त की सेवा करने और महन्त के स्वर्गवास की बाट जोहने लगे। लेकिन, जल्द ही आजाद किस्म की प्रवृति के चन्द्रशेखर जल्दी ही कुढ़ गए। क्योंकि उनकी सेवा से मरणासन्न महन्त पुनः हृष्ट-पुष्ट होते चले गए। चन्द्रशेखर ने किसी तरह दो महीने काटे। उसके बाद उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों को पत्र लिखकर यहां से मुक्त करवाने के लिए आग्रह किया। लेकिन, मित्रों ने उनके आग्रह को ठुकरा दिया। चन्द्रशेखर ने मन मसोसकर कुछ समय और महन्त की सेवा की और फिर धन पाने की लालसाओं और संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाकर एक दिन वहां से खिसक लिए।

इसके बाद उन्होंने पुनः अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी। उन्होंने एक शीर्ष संगठनकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई। वे अपने क्रांतिकारी दल की नीतियों एवं उद्देश्यों का प्रचार-प्रसार के लिए पर्चे-पम्फलेट छपवाते और लोगों में बंटवाते। इसके साथ ही उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से सार्वजनिक स्थानों पर भी अपने पर्चे व पम्पलेट चस्पा कर दिए। इससे अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन’ के बैनर तले राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त, 1925 को काकोरी के रेलवे स्टेशन पर कलकत्ता मेल के सरकारी खजाने को लूट लिया। यह लूट अंग्रेजी सरकार को सीधे और खुली चुनौती थी। परिणामस्वरूप सरकार उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गई। गुप्तचर विभाग क्रांतिकारियों को पकड़े के लिए सक्रिय हो उठा और 25 अगस्त तक लगभग सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। लेकिन, चन्द्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए। गिरफ्तार क्रांतिकारियों पर औपचारिक मुकदमें चले। 17 दिसम्बर, 1927 को राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और दो दिन बाद 19 दिसम्बर को पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, अफशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह आदि शीर्ष क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। इसके बाद सन् 1928 में चन्द्रशेखर ने ‘एसोसिएशन’ के मुख्य सेनापति की बागडोर संभाली।

चन्द्रशेखर आजाद अपने स्वभाव के अनुसार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों को बखूबी अंजाम देते रहे। वे अंग्रेजी सरकार के लिए बहुत बड़ी चिन्ता और चुनती बन चुके थे। अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लेना चाहती थी। इसके लिए पुलिस ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। पुलिस के अत्यन्त आक्रमक रूख को देखते हुए और उसका ध्यान बंटाने के लिए चन्द्रशेखर आजाद झांसी के पास बुन्देलखण्ड के जंगलों में आकर रहने लगे और दिनरात निशानेबाजी का अभ्यास करने लगे। जब उनका जी भर गया तो वे पास के टिमरपुरा गाँव में ब्रह्मचारी का वेश बनाकर रहने लगे।

गाँव के जमींदार को अपने प्रभाव में लेकर उन्होंने अपने साथियों को भी वहीं बुलवा लिया। भनक लगते ही पुलिस गाँव में आई तो उन्होंने अपने साथियों को तो कहीं और भेज दिया और स्वयं पुलिस को चकमा देते हुए मुम्बई पहुंच गए। वे मुम्बई आकर क्रांतिकारियों के शीर्ष नेता दामोदर वीर सावरकर से मिले और साला हाल कह सुनाया। सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण से चन्द्रशेखर को प्रभावित कर दिया। यहीं पर उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह से हुई। कुछ समय बाद वे कानपुर में क्रांतिकारियों के प्रसिद्ध नेता गणेश शंकर विद्यार्थी के यहां पहुंचे। विद्यार्थी जी ने उन तीनों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। यहां पर भी पुलिस ने उन्हें घेरने की भरसक कोशिश की। इसके चलते चन्द्रशेखर यहां से भेष बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली जा पहंुचे।

दिल्ली पहुंचने के बाद वे मथुरा रोड़ पर स्थित पुराने किले के खण्डहरों में आयोजित युवा क्रांतिकारियों की सभा में शामिल हुए। अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को गिरफ्तार करने के लिए विशेष तौरपर एक खुंखार व कट्टर पुलिस अधिकारी तसद्दुक हुसैन को नियुक्त कर रखा था। वह चन्द्रशेखर की तलाश में दिनरात मारा-मारा फिरता रहता था। जब उसे इस सभा में चन्द्रशेखर के शामिल होने की भनक लगी तो उसने अपना अभेद्य जाल बिछा दिया। वेश बदलने की कला में सिद्धहस्त हो चुके चन्द्रशेखर यहां भी वेश बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली से कानपुर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने भगत सिंह व राजगुरू के साथ मिलकर अंग्रेज अधिकारियों के वेश में अंग्रेजों के पिठ्ठू सेठ दलसुख राय से 25000 रूपये ऐंठे और चलते बने।

जब 3 फरवरी, 1928 को भारतीय हितों पर कुठाराघात करके इंग्लैण्ड सरकार ने ‘साईमन’ की अध्यक्षता में एक कमीशन भेजा। साईमन कमीशन यह तय करने के लिए आया था कि भारतवासियों को किस प्रकार का स्वराज्य मिलना चाहिए। इस दल में किसी भी भारतीय के न होने के कारण ‘साईमन कमीशन’ का लाला लाजपतराय के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी कड़ा विरोध किया गया। अंग्रेजी सरकार ने लाला जी सहित सभी आन्दोलनकारियों पर ताबड़तोड़ पुलिसिया कहर बरपा दिया और पुलिस की लाठियों का शिकार होकर लाला जी देश के लिए शहीद हो गए। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह व राजगुरू आदि क्रांतिकारियों ने लाला जी की मौत का उत्तरदायी साण्डर्स माना और उन्होंने उसको 17 दिसम्बर, 1928 को मौत के घाट उतारकर लाल जी की मौत का प्रतिशोध पूरा किया।

सांडर्स की हत्या के बाद अंग्रेजी सरकार में जबरदस्त खलबली मच गई। कदम-कदम पर पुलिस का अभेद्य जाल बिछा दिया गया। इसके बावजूद चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ पंजाब से साहब, मेम व कुली का वेश बनाकर आसानी से निकल गए। इसके बाद इन क्रांतिकारियों ने गुंगी बहरी सरकार को जगाने के लिए असैम्बली में बम फंेकने के लिए योजना बनाई और इसके लिए काफी बहस और विचार-विमर्श के बाद सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को चुना गया। 8 अपै्रल, 1929 को असैम्बली में बम धमाके के बाद इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमें की औपचारिकता पूरी करते हुए 23 मार्च, 1931 को सरदार भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को बम काण्ड के मुख्य अपराधी करार देकर, उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।

इस दौरान चन्द्रशेखर आजाद ने अपने क्रांतिकारी दल का बखूबी संचालन किया। आर्थिक समस्याओं के हल के लिए भी काफी गंभीर प्रयास किए। पैसे की बचत पर भी खूब जोर दिया। इन्हीं सब प्रयासों के चलते दल की तरफ से सेठ के पास आठ हजार रूपये जमा हो चुके थे। चन्द्रशेखर ने सेठ को आगामी गतिविधियों के लिए यही पैसा लाने कि लिए इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में बुलाया। इसी बीच चन्द्रशेखर के दल के सदस्य वीरभद्र तिवारी को अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को पकड़वाने के लिए दस हजार रूपये और कई तरह के अन्य प्रलोभन देकर खरीद लिया। जब 27 फरवरी, 1931 को चन्द्रशेखर सेठ से पैसे लेने के लिए निर्धारित स्थान अलफ्रेड पार्क में पहुंचे तो विश्वासघाती वीरभद्र तिवारी की बदौलत पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय चन्द्रशेखर अपने मित्र सुखदेव राज से आगामी गतिविधियों के बारे में योजना बना रहे थे। चन्द्रशेखर ने सुखदेव राज को पुलिस की गोलियों से बचाकर वहां से भगा दिया। उसने अकेले मोर्चा संभाला और पुलिस का डटकर मुकाबला किया।

एक तरफ अकेला शूरवीर चन्द्रशेखर आजाद था और दूसरी तरफ पुलिस कप्तान बाबर के नेतृत्व में 80 अत्याधुनिक हथियारों से लैस पुलिसकर्मी। फिर भी काफी समय तक अकेले चन्द्रशेखर ने पुलिस के छक्के छुड़ाए रखे। अंत में चन्द्रशेखर के कारतूस समाप्त हो गए। सदैव आजाद रहने की प्रवृति के चलते उन्होंने निश्चय किया कि वो पुलिस के हाथ नहीं आएगा और आजाद ही रहेगा। इसके साथ ही उन्होंने बचाकर रखे अपने आखिरी कारतूस को स्वयं ही अपनी कनपटी के पार कर दिया और भारत माँ के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों की सूची में स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया। इस तरह से 25 साल का यह बांका नौजवान भारत माँ की आजादी की बलिवेदी पर शहीद हो गया। यह देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा। भारत माँ के इस वीर सपूत और क्रांतिकारियों के सरताज को कोटि-कोटि नमन है।
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तांत्याटोपे



1857 के आन्दोलन के अग्रदूत एवं स्वाधीनता आन्दोलन एक महान सेनानायक थे तांत्याटोपे। 18 अप्रैल 1859 को इस महान स्वतंत्रता सेनानी को मध्य प्रदेश के शिवपुरी में अंग्रेजी हुकूमत से बगावत के कारण फांसी पर लटका दिया गया। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में तांत्याटोपे की भूमिका अहम् एवं प्रेरणादायक थी। तांत्याटोपे का जन्म पटोदा जिले के येवला गावं में हुआ था। सन 1857 की विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ परन्तु इसकी चिंगारी तुरंत सारे देश में फ़ैल गई। इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बहुत ही जबरदस्त संघर्ष किया गया इस संग्राम की गाथा क्रांतिकारियों खून से, त्याग से, और बलिदान से लिखी गई। इस रक्तरंजित गौरवशाली इतिहास में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, मुग़ल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफ़र, और 80 वर्ष के महान क्रन्तिकारी वीर कुंवर सिंह ने जब अपनी सहादत दे दी तब से 1 वर्ष तक इस आन्दोलन को चलने वाले महानायक थे तांत्याटोपे।

सन् 1857 के विद्रोह की लपटें जब कानपूर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु 16-जुलाई-1857 को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा। शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।

कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड दिया और वे स्वयं वेश बदलकर ग्वालियर चले गये। जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने एक ऐसी विलक्षण सफलता प्राप्त की जिससे ह्यूरोज अचंभे में पड गया। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उसने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की फौज को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर के प्रसिद्ध किले पर कब्जा कर लिया था।

झाँसी की रानी, तात्या और राव साहब ने जीत के ढंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोशित किया। दुर्भाग्यवस फूलबाग़ के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई। इसके बाद लगभग सभी जगहों पर आन्दोलन कुचला जा चूका था, परन्तु तांत्या ने हार नही मानी और वो अब अकेले होने के कारण दक्षिण भारत में राजाओं से मदद मांगने गए परन्तु वहां से भी उन्हें बैरंग खाली आना पड़ा। इसके बाद तांत्या राजस्थान गए परन्तु वहां भी इनके हाँथ असफलता ही हाँथ लगी। सब जगह से निरास होने के बाद तात्या पाड़ौन में जगलों में अपने मित्र मानसिंह की शरण में चले गए।

यहां तात्या के अंतर्मन में विद्रोह की जो चिंगारियां फूट रही थीं, उन पर पानी फिर गया। जब फिरंगी सेनानायक तात्याटोपे को मारने अथवा गिरफ्तार करने में सफल न हो सके तो उन्होंने छल-कपट का रास्ता अपनाया। मानसिंह को अंग्रेजों ने उसका राज्य वापिस लौटाने का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में ले लिया। ‘1857 के गद्र का इतिहास’ में इस घटना के बारे में शिवनारायण द्विवेदी ने लिखा है, ‘मानसिंह ने मित्रता से काम नहीं लिया। तात्या को पकड़वाने के लिये वह अंग्रेज सेनापति मीड़ से सलाह करने लगा। सेनापति मीड़ ने मानसिंह की जान बचाने और उसका जब्त राज्य वापिस दिलाने का वादा किया।

जब तांत्या के पाड़ौन के जंगल में गए तब मान सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। तांत्या अपने पुराने साथियों से संपर्क में थे, उन्होंने ने उन्हें सन्देश भेजवा दिया की मान सिंह ने आत्मसमर्पण और वो फिलहाल पाड़ौन के जंगल में तो इमाम अली  ने उत्तर दिया की हमसब यानि रावसाहव पेशवा, फिरोजशाह अम्बापानी और करीब 5000 के संख्या में लोग हैं आप आकर सिरोंज के जंगल में मिले, यहीं पर तांत्या धोखे खा गए और उन्होंने पहले मान सिंह से सलाह लेनी की सोंची और अंग्रेजी हुकूमत और अपने गद्दार मित्र मनन सिंह के बिछाये जाल में फंस गए। 7-अप्रैल-1859 को तांत्या को गिरफ्तार किया गया और 8-अप्रैल-1859 को उन्हें शिवपुरी लाया गया।  इसके बाद एक अंग्रेज अधिकारी के बंगले में कोर्ट लगाया गया और तांत्या पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया। इतिहास और और इतिहासकारों की माने तो इस पर तांत्या ने जो जवाब दिए वो अंग्रेजी हुकूमत को हिलाने वाला था उन्होंने कहा की मैंने किसी भी कीमत पर राज़द्रोह किया ही नही क्योंकि मैं पेशवा यहां के राजा थे और मैं उनका नौकर था, जो कुछ मैनें किया है, उनकी आज्ञा से ही किया है, अतः मैं राजद्रोही नहीं राजभक्त हूं। रणभूमि मे मैने अंग्रेजों से युद्ध किया है।  उस समय मेरी तलवार के सामने जो अंग्रेज आए, उनको मैनें मारा है।

उन्होंने यह भी कहा की मेरी तलवार ने किसी निर्दोष अंग्रेज पुरूष, स्त्री, या अंगेरजी बच्चों को नही मारा नहीं उन्हें सूली पर चढ़ाया है। आखिर में अंग्रेजी हुकूमत ने 18-अप्रैल-1857 को तांत्या को फांसी पर चढाने फरमान सुनाया।  18-अप्रैल-1857 को तांत्या को शाम 5 बजे फांसी पर लटकाया गया, और दुसरे दिन शाम तक महान क्रांतिकारी का पार्थिव शरीर वहीँ नीम के पेड़ पर लटका रहा इसका सिर्फ के मकसद था आगे से कोई भी इस दमनकारी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज़ न उठा सके और कोई हंगामा न खड़ा कर सके। इस महान सेनापति की मृतु के बाद भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम अंत हो गया।
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शहीद हरी किशन सरहदी



आजाद भारत में तो आम जनता की इच्छा है कि कोई भगत सिंह की तरह जन्म लेकर उसकी बेड़ियों को काटने का कार्य करे , उच्च आदर्शो वाले क्रान्तिकारियो की पैदावार पड़ोस के घर में हो आम जन यही चाहते है | धन्य है वो परिवार , वो माताएं जिन्होंने अपनी कोख से पैदा की संतानों को क्रांति मार्ग पर चलने को प्रेरित किया | उत्तर-पश्चिम के सीमांत प्रान्त के मर्दन जनपद के गल्ला ढेर नामक स्थान पर गुरुदास मल के पुत्र रूप में सन १९१२ में बालक हरिकिशन का जन्म हुआ था | गुरु दास मल की माँ यानि कि हरिकिशन की दादी माँ बचपन से ही क्रान्तिकारियो के किस्से कहानियो के रूप में बालक हरिकिशन को सुनाया करती थी | क्रांति का बीज परिवार ने ही बोया | क्रांति बीज को पोषित करके , हरा-भरा करके माँ भारती के कदमो में समर्पित पिता गुरुदास मल ने किया | काकोरी कांड का बड़े लगन व चाव से अध्ययन हरिकिशन ने किया | रामप्रसाद बिस्मिल व अशफाक उल्लाह खान हरिकिशन के आदर्श बन गये | दौरान-ए-मुकदमा (असेम्बली बम कांड ) भगत सिंह के बयानों ने हरिकिशन के युवा मन को झक झोर दिया | भगत सिंह को हरिकिशन अपना गुरु मानने लगे |

यह वह दौर था जब ब्रितानिया हुकूमत द्वारा पुरे देश में क्रान्तिकारियो पर दमन अपने चरम पर था | कांग्रेस के नेतागण अहिंसात्मक आन्दोलन के नाम पर क्रूर और चालाक अंग्रेजो से मानो नूराकुश्ती कर रहे थे | और तो और क्रान्तिकारियो के रास्ते में भी यही कांग्रेसी ही आ जाते थे | इन्ही परिस्थितो में क्रांतिपुत्र हरिकिशन ने पंजाब के गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी का वध करने का निश्चय किया |

पंजाब विश्विद्यालय का दीक्षांत समारोह २३ दिसम्बर , १९३० को संपन्न होना था | समारोह की अध्यक्षता गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को करनी टी और मुख्य वक्ता डॉ राधा कृष्णन थे | अपनी पूरी तैयारी के साथ हरिकिशन भी सूट-बूट पहन कर दीक्षांत भवन में उपस्थित थे | डिक्शनरी के बीच के हिस्से को काटकर उसमे रिवाल्वर रखकर समारोह की समाप्ति का इंतज़ार करने लगे | यह ध्यान देने की बात है कि हरिकिशन को गोली चलाने की ट्रेनिंग उनके ही पिता गुरुदास मल ने स्वयं ही दी थी | हरिकिशन एक पक्के निशानेबाज बन गये थे | समारोह समाप्त होते ही लोग निकलने लगे | हरिकिशन एक कुर्सी पर खड़े हो गये और उन्होंने गोली चला दी , एक गोली गवर्नर की बांह और दूसरी पीठ को छिलती हुई निकल गयी | तब तक डॉ राधा कृष्णन गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को बचाने के लिए उनके सामने आ गये | अब हरिकिशन ने गोली नहीं चलायी और सभा भवन से निकल कर पोर्च में आ गये | पुलिस दरोगा चानन सिंह पीछे से लपके और वे हरिकिशन का शिकार बन गये , एक और दरोगा बुद्ध सिंह वधावन ज़ख़्मी होकर गिर पड़ा | हरिकिशन अपना रिवाल्वर भरने लगे परन्तु इसी दौरान पुलिस ने उन्हें धर दबोचा | इस तरह उस समय एक ब्रितानिया शोषक-जुल्मी की जन किसने बचायी और वे कितने बड़े देशभक्त थे , यह इस घटना से समझा जा सकता है | अब हरिकिशन पर अमानवीय यातनाओ का दौर शुरु हो गया |

लाहौर के सेशन जज ने २६ जनवरी , १९३१ को हरिकिशन को मृत्यु दंड दिया | हाई कोर्ट ने भी फैसले पर मोहर लगायी | जेल में दादी ने आकर कहा — हौसले के साथ फांसी पर चढ़ना | हरिकिशन ने जवाब दिया — फिक्र मत करो दादी | शेरनी का पोता हूँ | पिता ने जेल में तकलीफ पूछने की जगह सवाल दागा — निशाना कैसे चुका ? उत्तर मिला — मैं गवर्नर के आस पास के लोगो को नहीं मरना चाहता था इसीलिए कुर्सी पर खड़े होकर गोली चलाई थी | परन्तु कुर्सी हिल रही थी | उसी जेल में भगत सिंह भी कैद थे | भगत सिंह से मिलने के लिए हरिकिशन अनशन पर बैठ गये | अनशन के नौवें दिन जेल अधिकारिओ ने भगत सिंह को हरिकिशन की कोठरी में मिलने के लिए भेजा | अपने गुरु से मिलकर हरिकिशन बहुत प्रसन्न हुये | आपके पिता गुरुदास मल को भी गिरफ्तार कर लिया गया | यातनाएं दी गयी जिससे उनकी मृत्यु हो गयी | हरिकिशन को ही छोटा भाई भगतराम सुभाष चन्द्र बोष को रहमत उल्लाह के छद्म नाम से अफगानिस्तान तक छोड़ने गया था | पूरा परिवार ही देश की आज़ादी में अपना योगदान और बलिदान देने में जुटा हुआ था |

९ जून , १९३१ को प्रातः ६ बजे लाहौर की मियां वाली जेल में इन्कलाब जिंदाबाद के नारे गुंजायमान होने लगे और फिर एक तूफान आने के बाद की खामोश छा गयी | वीर युवा हरिकिशन आज़ादी की राह पर फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया |

२२ वर्षीया युवा हरिकिशन ने बयान दिया था — अंग्रेजो के दमन चक्र से मेरा विश्वास अहिंसा से उठकर अशास्त्र क्रांति में द्रित हुआ है | अंग्रेज भारगवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी त को कभी स्वतंत्र नहीं होने देंगे | मैं गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को कठोर दमन के लिए उत्तरदायी मानता हूँ | दीक्षांत समारोह में गवर्नर ज्योफ्रे डी मोरमोरेंसी को दंड देना इसीलिए उचित था | उसे दण्डित होते देखने के लिए विशिष्ठ व्यक्तियों का समुदाय उपस्थित था |

आइये , इस रणबांकुरे हरिकिशन की अंतिम इच्छा भी जान लीजिये — मैं इस पवित्र धरती पर तब तक जन्म लेता रहूँ जब तक इसे स्वतंत्र ना कर दूँ | यदि मेरा मृत शरीर परिवार वालो को दिया जाये तो अंतिम संस्कार उसी स्थान पर किया जाये जहा पर शहीद भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु का संस्कार हुआ था | मेरी अस्थियाँ सतलुज में उसी स्थान पर प्रवाहित की जाये जहा उन लोगो की प्रवाहित की गयी है | लेकिन अफ़सोस ही कर सकते है कि ब्रितानिया हुकूमत ने हरिकिशन के पार्थिव शरीर को उनके परिवार को नहीं सौंपा और जेल में ही जला दिया |

ब्रितानिया हुकूमत की दरिंदगी और हिंदुस्तान के गद्दारों के नापाक इरादों के शिकार बलिदानी हरिकिशन की शहादत की बेला पर उसे अंतिम विदाई देने वाला कोई था तो सिर्फ ओस की बुँदे | मात्रभूमि की आज़ादी के मकसद में क्रांति के उच्च आदर्शो की स्थापना करने वाले सभी सेनानी अपने आत्मोसर्ग की भावना के कारण युगों युगों तक क्रान्तिकारियो के लिए प्रेरणा के पुंज बन कर क्रांति पथ को आलोकित करते रहेंगे |
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Thursday, June 14, 2012

शहीद कर्तार सिंह सराभा



सरदार भगत सिंह के प्रेरणाश्रोत थे कर्तार सिंह सराभा।भगतसिंह के पास सदैव उनका चित्र रहता था,भगत सिंह के शब्दों में- यह मेरा गुरू,साथी व भाई है। गावँ सराभा जनपद लुधियाना में इकलौते पुत्र के रूप में जन्म लेने वाले माँ भारती के इस लाल की जिन्दगी का एक ही लक्ष्य,एक ही इच्छा थी-क्रान्ति।अल्पायु में ही पिताजी का देहावसान हो जाने के पश्चात् दादा की स्नेहिल छावं में आपका पालन-पोषण हुआ।नवीं कक्षा के बाद आपने अपने चाचा के घर रहकर दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की।

1910-1911 के वक्त आप कॉलेज में दाखिला लिये।यह आन्दोलन का समय आपके भीतर देशप्रेम की भावना को अंकुरित करने में सहायक सिद्ध हुआ।1912 में आप सान्फ्रान-सिस्को-अमेरिका पॅंहुचे। गोरों की जबान से डैम हिन्दू और ब्लैक मैन आदि सुनते ही सुनते ही वे पागल हो जाते।भारत की इज्जत,सम्मान की धज्जियां उधड़ते देखना उनका कोमल मन सहन नहीं कर पाता।घर-परिवार की याद आने पर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ अपना देश भारत नजर आता।यह असम्भव था कि कर्तार सिंह सराभा को चैन मिलता।

आज भारत की जो दुर्दषा है वो अपने ही धरा के लोगों के कारण है परन्तु उस समय गुलामी का अतिरिक्त दंश कोढ में खाज का कार्य कर रहा था।मन में विचार आया कि यदि शान्ति से, ब्रितानिया हुकूमत के आगे गिड़गिड़ाने से मुल्क आजाद न हुआ तो देश किस तरह से आजाद होगा?फिर किशोर सराभा क्रान्ति के पथ पर चलने का दृढ़ निश्चय करके,अपना सर्वस्व भारत माँ को अर्पण करने की ठानकर, भारतीय मजदूरों के बीच क्रान्ति की भभूत का वितरण करने में लग गया।भारत की आजादी किस राह से लायी जाये इस पर सराभा ने गहरा मनन् किया था। अपमान की,गुलामी की जिन्दगी से मौत हजार दर्जा अच्छी-यह मूलमंत्र हर मजदूर के मन में आत्मसात करा रहे थे क्रान्ति पथ प्रदर्शक कर्तार सिंह सराभा। मई 1912 में एक गुप्त बैठक आयोजित की गई। प।जाब के देशभक्त भगवान सिंह वहां पहुंचे ।लगातार जनसम्पर्क व जलसे आयोजित हुए।नवम्बर 1913 में गदर का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ।गदर हैण्ड प्रेस पर छापा जाता था।कर्तार सिंह सराभा मतवाले नौजवान थे।प्रेस चलाते2 थक जाने पर वे गाने लगते थे-

सेवा देश दी जिन्दड़िए बड़ी औखी, गल्लां करनीआँ ढेर सुखल्लीयाँ ने।
जिन्ना देशसेवा विच पैर पाया,
उन्नां लक्ख मुसीबतां झल्लियां ने।

करतार सिंह न्यूयार्क में विमान कम्पनी में कार्य करने लगे।सितम्बर 1914 में कामागाटारू जहाज प्रकरण के प्श्चात् कर्तार सिंह,क्रान्तिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी क्रान्तिकारी जैक एक साथ जापान आये और बाबा गुरदित्त सिंह से मुलाकात कर योजनायें बनाई।प्रचार युद्ध को तेज किया गया।स्टारकन के पब्लिक जलसे में क्रान्तिपुत्रों ने आजादी और बराबरी की कसमें खायीं एवं आजादी का झण्डा फहराया।सभी क्रान्तिकारियों ने भारत लौटने का संकल्प लिया।

चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
यही आखिरी वचन और फरमान हो गये।

कर्तार सिंह गजब के उत्साही और जोशीले थे। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वे अमेरिका से भारत आये।दिसम्बर 1914 में मराठा नौजवान विष्णु पिंगले भी आ गये।इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और श्री रासबिहारी बोस आये।क्रान्तिकारी योद्धा रासबिहारी बोस के साथ मिलकर कर्तार सिंह सराभा ने सम्पूर्ण भारत में पुनः एक बार गदर करने की योजना बनाई।तारीख तय हुई 21 फरवरी 1915।भारतीय फौजों को अपने पक्ष में करना एक बहुत बड़ा काम था।हथियार,गोलाबारूद,काफी धन सभी वस्तुओं का योजनापूर्वक प्रबन्ध किया।देश के सभी क्रान्तिपुत्रों में जोश की लहर दौड़ पडी।सर्वत्र संगठन किया जाने लगा!

गदर पार्टी के सारे कार्य सुनियोजित ढ़ग से होते थे।21 फरवरी 1915 को बर्मा,सिंगापुर समेत सारे भारत में क्रान्ति होनी थी,लेकिन होनी को कुछ और मंजूर था।पंजाब पुलिस का जासूस सैनिक कृपाल सिंह क्रान्तिकारियों की पार्टी में शामिल हो चुका था।पैसे के लिए उसने अपना जमीर बेच दिया।तैयारी की सूचना उसने अंग्रजों को दे दी। परिणामस्वरूप समस्त भारत में धरपकड़,तलाशियां और गिरफतारियां हुईं। अनेक क्रान्तिकारी गिरफतार हुए,कुछ भूमिगत हुए,तो कुछ काबुल की तरफ निकल गये। विफल होने की ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे थे।कर्तार सिंह भी वहीं चारपाई पर आकर दूसरी तरफ मुहॅं करके लेट गये।दोनो ने आपस में कोई बात नहीं की,लेकिन चुपचाप ही एक दूसरे के हालात समझ गये होंगें।इनके हालात का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं-

दरे-तदबीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना,
वसीले हाथ ही न आये किस्मत आजमाई के।

कर्तार सिंह सराभा की इच्छा थी कि आजादी मिले या लड़ते-लड़ते मौत।वे फिर अलख जगाने निकल पड़े।सरगाोधा के नजदीक चक्क नम्बर 5 में पहुँच कर उन्होंने विद्रोह की चर्चा छेडी़।आप यहा पर पकड़ लिए गये।मस्त मौला कर्तार सिंह के आर्कषक व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते थे।मुकदमा चला।साढ़े अठारह वर्ष की उम्र थी।सबसे कम उम्र के क्रान्तिकारी थे सराभा।आपके बारे में जज ने लिखा-वह इन अपराधियों में,सबसे खतरनाक अपराधियों में एक है।अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड़यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें इसने महत्वपूर्ण भूमिका न निभाई हो।दौरान-ए-मुकदमा आपने बयान में कहाःअपराध के लिए मुझे उम्रकैद की सजा मिलेगी या फांसी !लेकिन मैं फांसी को प्राथमिकता दूॅंगा ताकि फिर जन्म लेकर-जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो,तब तक मैं बार बार जन्म लेकर,फांसी पर लटकता रहूंगा ।यही मेरी अन्तिम इच्छा हैं...

चमन ज़ारे मुहब्बत में,उसी ने बाग़बानी की,
जिसने मेहनत को ही मेहनत का समर जाना।
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फै़ज शबनम का,
अँधेरी रातें मोती लुटा जाती हैं गुलशन में।

डेढ़ साल तक मुकदमा चलने के पश्चात् 16 नवम्बर 1915 के दिन कर्तार सिंह सराभा को विष्णु गणेश पिंगले,बख्शीश सिंह,सुरेन सिंह वल्द बूटासिंह,सुरेन सिंह वल्द ईश्वर सिंह,हरनाम सिंह और जगत सिंह के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया।दस पौण्ड वजन बढ़ गया था। प्रसन्नचित्त सराभा भारत माता का जयकारा लगाते हुए क्रान्ति-पथ को आलोकित कर सरदार भगतसिंह जैसा अनुयायी भारत माँ की सेवा के लिए तैयार कर,मेहनतकश-मज़लूमों की आवाज बनने के लिए,गुलामी की बेड़िया। तोड़ने के लिए हमारे बीच छोड़ गया।।।।
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विनोबा भावे



संत विनोबा भावे का वास्‍तविक नाम था विनायक नरहरि भावे। उनकी समस्‍त जिंदगी साधु संयासियों जैसी रही, इसी कारणवश वह एक संत के तौर पर प्रख्‍यात हुए। वह एक अत्‍यंत विद्वान एवं विचारशील व्‍यक्तित्‍व वाले शख्‍स थे। महात्‍मा गॉंधी के परम शिष्‍य जंग ए आजा़दी के इस योद्धा ने वेद, वेदांत, गीता, रामायण, कुरान, बाइबिल आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों का उन्‍होने गहन गंभीर अध्‍ययन मनन किया। अर्थशास्‍त्र, राजनीति और दर्शन के आधुनिक सिद्धांतों का भी विनोबा भावे ने गहन अवलोकन चिंतन किया। गया।

जेल में ही विनोबा ने 46 वर्ष की आयु में अरबी और फारसी भाषा का अध्‍ययन आरम्‍भ किया और कुरान पढना भी शुरू किया। अत्‍यंत कुशाग्र बुद्धि के विनोबा जल्‍द ही हाफि़ज़ ए कुरान बन गए। मराठी, संस्‍कृत, हिंदी, गुजराती, बंगला, अंग्रेजी, फ्रेंच भाषाओं में तो वह पहले ही पारंगत हो चुके थे। विभिन्‍न भाषाओं के तकरीबन पचास हजार पद्य विनोबा को बाकायदा कंठस्‍थ थे। समस्‍त अर्जित ज्ञान को अपनी जिंदगी में लागू करने का भी उन्‍होने अप्रतिम एवं अथ‍क प्रयास किया।

महात्‍मा गॉंधी ने उनकी असल शक्ति को पहचाना। विनायक हरि भावे से प्रथम बार मिलने के पश्‍चात बापू ने कहा कि तुम्‍हारे प्रेम, ज्ञान और चारित्र्य की ताकत ने मुझे मोहित कर लिया है। तुम निश्चित तौर पर महान् कार्य का निमित्‍त बनोगे। ईश्‍वर तुम्‍हें दिर्घायु करे और तुम हिंद की आज़ादी और प्रगति के लिए अपना जीवन अर्पित कर दो। दीनबंधु एंड्रयूज को महात्‍मा गॉंधी ने एक खत में लिखा था कि लोग आश्रम में कुछ ना कुछ पाने के लिए आते हैं, किंतु विनोबा तो आश्रम को अपने पुण्‍यों के प्रताप से सिंचित करने आया है। आश्रम के दुर्लभ रतनों में वह एक है।

विनोबा का जन्‍म महाराष्‍ट्र के कोंकड़ इलाके के गागोद गॉव में 11 सितंबर 1895 को हुआ। पिता नरहरि भावे ने नवजात शिशु का नाम रखा विनायक। घर का वातावरण भक्तिभाव से ओतप्रोत था। बाल्‍यपन से ही वैरागी बनने का विचार दृढ़ होने लगा। विनोबा की मां रखुबाई के निर्देशन में बालक विनायक का उपनिषद, गीता, रामायण, और महान् मराठी संतों के धर्मग्रंथों का पठन पाठन चलता ही रहता था।

विनायक की बुद्धि अत्‍यंत प्रखर थी। गणित उसका सबसे प्‍यारा विषय बन गया। हाई स्‍कूल परीक्षा में गणित में सर्वोच्‍च अंक प्राप्‍त किए। बडौ़दा में ग्रेजुएशन करने के दौरान ही विनायक का मन वैरागी बनने के लिए अति आतुर हो उठा। 1916 में मात्र 21 वर्ष की आयु में गृहत्‍याग कर दिया और साधु बनने के लिए काशी नगरी की ओर रूख किया। काशी नगरी में वैदिक पंडितों के सानिध्‍य में शास्‍त्रों के अध्‍ययन में जुट गए। गॉधी बाबा की चर्चा देश में चारो ओर चल रही थी कि वह दक्षिणी अफ्रीका से भारत आ गए हैं और आजादी का बिगुल बजाने में जुट गए हैं। अखंड स्‍वाध्‍याय और ज्ञानाभ्‍यास के दौरान विनोबा का मन गॉ्धी बाबा से मिलने के लिए किया तो वह पंहुच गए अहमदाबाद के कोचरब आश्रम में। जब पंहुचे तो गॉधी सब्‍जी काट रहे थे। इतना प्रख्‍यात नेता सब्‍जी काटते हुए मिलेगा, ऐसा तो कदाचित विनाबा ने सोचा न था। बिना किसी उपदेश के स्‍वालंबन और श्रम का पाठ पढ लिया। इस मुलाकात के बाद तो जीवन भर के लिए वह बापू के ही हो गए।

बापू के सानिध्‍य और निर्देशन में विनोबा के लिए ब्रिटिश जेल एक तीर्थधाम बन गई। सन् 1921 से लेकर 1942 तक अनेक बार जेल यात्राएं हुई। सन् 1922 में नागपुर का झंडा सत्‍याग्रह किया। ब्रिटिश हुकूमत ने सीआरपीसी की धारा 109 के तहत विनोबा को गिरफ्तार किया। इस धारा के तहत आवारा गुंडों को गिरफ्तार किया जाता है। नागपुर जेल में विनोबा को पथ्‍थर तोड़ने का काम दिया गया। कुछ महीनों के पश्‍चात अकोला जेल भेजा गया। विनोबा का तो मानो तपोयज्ञ प्रारम्‍भ हो गया। 1925 में हरिजन सत्‍याग्रह के दौरान जेल यात्रा हुई। 1930 में गॉधी की कयादत में राष्‍ट्रीय कांग्रेस ने नमक सत्‍याग्रह अंजाम दिया गया।

12 मार्च 1930 को गॉंधी ने दाण्‍डी मार्च शुरू किया। विनोबा फिर से जेल पंहुच गए। इस बार उन्‍हे धुलिया जेल रखा गया। राजगोपालाचार्य जिन्‍हे राजाजी भी कहा जाता था, उन्‍होने विनोबा के विषय में यंग इंडिया में लिखा था कि विनोबा को देखिए देवदूत जैसी पवित्रता है उसमे। आत्‍मविद्वता, तत्‍वज्ञान और धर्म के उच्‍च शिखरों पर विराजमान है वह। उसकी आत्‍मा ने इतनी विनम्रता ग्रहण कर ली है कि कोई ब्रिटिश अधिकारी यदि पहचानता नहीं तो उसे विनोबा की महानता का अंदाजा नहीं लगा सकता। जेल की किसी भी श्रेणी में उसे रख दिया जाए वह जेल में अपने साथियों के साथ कठोर श्रम करता रहता है। अनुमान भी नहीं होता कि य‍ह मानव जेल में चुपचाप कितनी यातनाएं सहन कर रहा है।

11 अक्‍टूबर 1940 को गॉंधी द्वारा व्‍यक्तिगत सत्‍याग्रह के प्रथम सत्‍याग्रही के तौर पर विनोबा को चुना गया। प्रसिद्धि की चाहत से दूर विनोबा इस सत्‍याग्रह के कारण बेहद मशहूर हो गए। उनको गांव गांव में युद्ध विरोधी तक़रीरें करते हुए आगे बढते चले जाना था। ब्रिटिश सरकार द्वारा 21 अक्‍टूबर को विनोबा को गिरफ्तार किया गया। सन् 1942 में नौ अगस्‍त को वह गॉधी और कॉंग्रेस के अन्‍य बडे़ नेताओं के साथ गिरफ्तार किया गया। इस बार उनको पहले नागपुर जेल में फिर वेलूर जेल में रखा।

1948 में गॉंधी जी की हत्‍या के पश्‍चात विनोबा ने सेवाग्राम में देशभर के गॉंधीवादियों के साथ मिलकर सर्वोदय समाज और सर्व सेवा संघ की स्‍थापना की। पवनार आश्रम के इस प्रयोगवादी बाबा ने कांचन मुक्ति का प्रयोग भी किया। अर्थात अपने कडे़ श्रम के आधार पर प्राप्‍त अन्‍न और वस्‍त्र के आधार पर ही जीवन यापन करना। सन् 1951 में भूदान यज्ञ आंदोलन का आग़ाज़ विनोबा भावे ने किया। उल्‍लेख्‍नीय है कि 1946 में आंध्र प्रदेश के तेलंगाना इलाके में साम्‍यवादियों ने सामंतवादी जमींदारी के विरूद्ध भयावह हिंसक संघर्ष की शुरूआत की। तकरीबन तीन सौ बडे़ जमींदारों को कत्‍ल कर दिया गया। विनोबा इस हिंसा से अत्‍यंत विचलित हुए और उन्‍होने भूदान यज्ञ आंदोलन का आग़ाज़ किया।

18 अप्रैल 1951 का दिन और आंध्र प्रदेश का पोचमपल्‍ली गांव, विनोबा के समक्ष गांव के भूमिहीन दलितों ने 80 बीघा जमीन की मांग पेश की। सांयकाल प्रार्थनासभा में विनोबा ने ग्रामीणों से सहज भाव से पूछा कि दलितों का जमीन चाहिए और सरकार तो अभी बहुत समय लगेगा इनको जमीन मुहैया कराने में। क्‍या आप भी कुछ कर सकते है। रामचंद्र रेड्डी नामक जमींदार खडा़ हुआ और अपनी पचास एकड़ जमीन देने के लिए तैयार हो गया। बिनोबा को रास्‍ता मिल गया, उन्‍होने गांव गांव घूम घूम कर जमीन मांगने और उसे भूमिहीन दलितों में वितरित करने का संकल्‍प ले लिया। कुछ इसे तरह से ही भूदान यज्ञ की गंगोत्री निकल पडी़। देश भर में विनोबा की भूदान यज्ञ आंदोलन की गांव गांव पदयात्रा निरंतर 13 वर्षो तक जारी रही। वह कहा करते यह प्रजासूय यज्ञ है और मैं इसका अश्‍व हूं और गांव गांव अहिंसा की फतह के लिए घूम रहा हूं भूमिदान मांगते हुए।

जयप्रकाश नारायण जैसे प्रबल राजनेता ने विनोबा की पांतो में जाना स्‍वीकार लिया। विश्‍वनाथ प्रताप सिंह विनोबा के अनुयायी बने। इस चिरंतन भूदान यात्रा के दौरान ही 19 मई 1960 को चंबल के खुंखार बागी डाकूओं का आत्‍मसमर्पण भी करा दिया। मानसिंह गिरोह के 19 डाकू विनोबा की शरण आ गए। आजादी हासिल होने पश्‍चात विनोबा ने राजनीति से पूर्णत: मुख मोड लिया था। अपने इस संकल्‍प पर वह सदैव कायम रहे। 1974 में जयप्रकाश नारायण के सरकार विरोधी राजनीतिक आंदोलन कमान संभालने पर भी वह राजीनीति से उदासीन बने रहे। जीवन के अंतिम दौर में उन्‍होने गौवंश की हत्‍या पर प्रतिबंध आयद करने के लिए पुरजोर कोशिश की। 15 नवंबर 1982 को इस महान् तेजस्‍वी संत ने पवनार आश्रम में अंतिम सांस ली और एक परम पुण्‍य जीवन खत्‍म हुआ।
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Wednesday, June 13, 2012

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई



19 नवम्बर 1835 को मोरोपंत व भागीरथीबाई की संतान रूप में एक बालिका ने जन्म लिया। काशी में जन्मी इस बालिका का नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से इस बालिका को सभी मनु पुकारने लगे। मोरोपंत जी सतारा जिले के वाई गाँव में चिमाजी आप्पा के यहाँ नौकरी करते थे। चिमाजी आप्पा पूना के पेशवा बाजीराव के भाई थे। सन्1818 में अंग्रेजों के पूना कब्जे के पश्चात् बाजीराव पेशवा बिठूर-कानपुर आ गये ।चिमाजी आप्पा के देहान्त के पश्चात् मोरोपंत,बाजीराव पेशवा के यहाँ बिठूर आ गये। बाजीराव के दत्तक नानासाहब के साथ मनु ने बचपन में ही शस्त्र विद्या व घुड़सवारी का प्रशिक्षण ले लिया था। बाजीराव मनु को छबीली कहते थे। बाजीराव ने ही आठ वर्षीया मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से कराया था। अब मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हो गई ।

गंगाधर राव के पूर्वजों को झाँसी का राज्य महाराजा छत्रसाल से उपहार रूप में प्राप्त हुआ था। सन 1851को सोलह वर्षीया रानी लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। कुछ ही दिनों पश्चात् यह नवजात शिशु मृत्यु के आगोश में समा गया। विधाता के इस फैसले को गंगाधर राव सह न सके और वे बीमार पड़ गये। गंगाधर राव ने बीमारी की परिस्थिति को समझकर अपने सम्बन्धी वासुदेवराव के पुत्र आनन्द को गोद लेकर उसका नाम दामोदर राव रख दिया। 21नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का स्वर्गवास हो गया। अंग्रेज तो मानो इसी दिन की प्रतीक्षा ही कर रहे थे,उन्होने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी रूप में अस्वीकार कर दिया और गंगाधर राव की लाखों की सम्पत्ति को अपने खज़ाने में जमा कर लिया। 7मार्च,1857 को शासन व्यवस्था के लिए अंग्रेज प्रतिनिधि एलिस को नियुक्त करके झाँसी को अंग्रेजी हुकूमत में शामिल कर लिया। अपमानित करते हुए वायसराय डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई से किला खाली करवा लिया और 5000रू मासिक पेंशन बहाल कर दी। रानी को पारम्परिक केशवपन संस्कार के लिए काशी जाने की इजाजत नही दी गई। दामोदर राव के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए जमा दस लाख रूपयों में से बडी मुश्किल से एक लाख रूपये,एक व्यापारी की जमानत से मिले।

अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार व जुल्म का प्रतिकार लेने के उद्देश्य से रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी। स्त्री गुप्तचरों की टोली बना,अंग्रेज छावनियों से गुप्त समाचार लाने की जिम्मेदारी दी। स्त्री-सैनिकों में वृद्धि की। तात्या टोपे ने सम्पूर्ण भारत में चलाई जा रही क्रान्ति की योजनाओं से रानी लक्ष्मीबाई को अवगत कराया। रानी को मानो मन की मुराद मिल गई। 31मई, 1857 का दिन स्वतन्त्रता-संग्राम के उद्घोश के लिए निर्धारित किया गया था। परन्तु मेरठ छावनी के 85 वीरों ने चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल से मनाही कर दी। वे जेल में डाल दिये गये थे। 10 मई1857 को घुड़सवार और पैदल सेना ने जाकर जेल तोड़ दी, अपने साथियों को छुड़ा लिया,अफसरो के घरों को फूक डाला। जिस यूरोपीय को पकड़ पाये,उसे मार डाले और दिल्ली की ओर चढ़ाई कर दी। यह घटना पूरे भारत में आग की तरह फैल गई। सम्पूर्ण उत्तर-भारत में मई माह में ही क्रान्ति की लपटें अंग्रेजों को दहलाने लगी।

5जून1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्टार फोर्ट नामक छोटे से किले पर सैनिकों ने हमला कर लूट लिया। झाॅंसी में अंग्रेज अफसरों के बंग्ले जला दिये गये। अंग्रेज अपनी स्त्रियों व बच्चों को रानी के पास महल में शरण हेतु ले कर आ गये। धन्य है-वो नारी-वीरांगना,जिसने अंग्रेजों द्वारा अत्याचारित होने के बावजूद राजधर्म व मानवता धर्म का त्याज्य नहीं किया। बाद में ये अंग्रेज परिवार किले में जा बसे। वहाॅं भी भूख-प्यास से तड़पते परिवारों के लिए रानी ने भोजन भिजवाया। किले की लड़ाई में अंग्रेज अधिकारी गार्डन मारा गया तथा रानी के रिसालदार काले खाॅं ने किला फतह किया। इसके बाद टीकमगढ़ के दीवान नत्थू खाॅं ने अंग्रेजों के इशारे पर बीस हजार सैनिकों के साथ झाॅंसी पर आक्रमण किया। रानी ने उसे भी परास्त किया ।रानी लक्ष्मीबाई ने धैर्य,साहस को संजोकर और न्यायपूर्वक राज्य को चलाना प्रारम्भ किया। सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ किया।धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की चहल पहल प्रारम्भ हो गई।रानी की सेना में दस हजार बंुदेले,अफगान और असंतुष्ट अंग्रेज थे।

चार सौ घुड़सवारों से सुसज्जित सेना के सेनापति जवाहरसिंह बुन्देला तथा दुर्गा दल नामक स्त्री सैन्य दल की प्रमुख वीरांगना झलकारी बाई थीं।गोलंदाज गुलाम गौस के निर्देशन में तोपखाना था,जिसमें महिलाओं को भी तोप चलाने का विशेष प्रशिक्षण दिया गया था।वाणपुर के राजा मर्दन सिंह,शाह गढ़ के बख्त अली ने रानी को पर्याप्त सहायता दी।दस एक माह बाद ह्यरोज और बिटलाक ने अंग्रेजी फौज लेकर रायगढ़,चंदेरी,सागर,वाणपुर आदि को जीतते हुए 23मार्च,1858 को झांसी किले को घेर लिया।तात्या टोपे कालपी से रानी की सहायता के लिए निकले परन्तु अंग्रेजों को रानी के गद्दारों से इसकी भनक मिल गई एवं अंग्रेजों ने रास्ते में तात्या टोपे की सेना पर आक्रमण कर दिया।झांसी किले के चारों प्रवेश दार पर कुशल तोपचियों की तैनाती थी।अंग्रेजों ने ओरक्षा प्रवेश दार पर नियुक्त दुल्हाजू को,पीरबख्श के हाथों रिश्वत देकर,गद्दारी के लिए तैयार कर लिया।उसने अपना प्रवेश दार खोल दिया।

उन्नाव प्रवेश दार रानी की प्रिय सहेली तथा दुर्गा दल की प्रमुख झलकारी बाई का पति पूरण सिंह तैनात था।अंग्रेजों ने किले में प्रवेश करते ही उसे मौत के घाट उतार दिया।पति की मृत्यु का शोक करने के बजाए वीरांगना झलकारी बाई ने कूटनीतिक चाल चली।रानी लक्ष्मी बाई को दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ साधारण वेष में बाहर निकाला तथा स्वयं रानी का रूप धारण कर साक्षात चण्डी का अवतार बन गई।झलकारी बाई ने अब अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था अंग्रेजों को अधिकतम समय तक स्वयं में उलझाये रखना जिससे कि रानी सकुशल कालपी पहुॅंच जायें।एक बार फिर दुल्हाजू ने गद्दारी की,उसने अंग्रेजों को हकीकत बता दी।अब अंग्रेजों ने रानी का पीछा करना प्रारम्भ किया।झांसी में पन्द्रह हजार लोगों को अंग्रेजों ने मार डाला।करोड़ों की सम्पत्ति लूटी।सत्रह दिन तक चले इस युद्ध में झांसी तबाह हो गया।

इघर रानी कालपी पहुची।वहां राव साहब पेशवा और तात्या टोपे ने उनका स्वागत किया।कालपी से ये लोग ग्वालियर आ गये।जनता व सेना ने राव साहब पेशवा का राजतिलक किया तथा रानी युद्ध की तैयारी में आस पास के ठिकानों का भ्रमण करने लगी।ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों के आगे घुटने टेक दिये।ह्यूरोज विशाल सेना लेकर ग्वालियर आ धमका।मुरार में उसकी टक्कर तात्या टोपे से हुई।भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो चुका था।18जून,1858 का वो दिन भी आ गया जिस दिन विधाता ने रानी लक्ष्मी बाई की शहादत की तारीख तय कर रखी थी।काशी और सुन्दर नाम की विश्वस्त सहेलियों के साथ रानी चारों तरफ से अंग्रेजों से घिर गई थी।रानी की तलवार बाजी से हार कर अंग्रेजों ने तोपों का मुंह खोल दिया।

रानी के सैनिक मारे गये,घोड़े की भी एक टांग टूट गई।रानी दूसरे घोड़े पर सवार होकर दोनो हाथों से तलवार चलाती हुई,मुंह में घोड़े की रस्सी दबाये अंग्रेजों को चीरते हुए निकलने में कामयाब हो गई।रास्ते में बड़ा नाला था,घोड़ा नया होने के कारण बीच में ही फंस गया।अंग्रेजों ने रानी पर गोलियां बरसानी प्रारम्भ कर दी।गोली से घायल रानी के पीछे सिर पर अंग्रेज ने तलवार से वार किया।रानी इस समय कालस्वरूपा हरे गई थी।बुरी तरह घायल रानी ने दर्जन भर अंग्रेज मार डाले।अंग्रेज पीछे हटे और लड़ते लड़ते रानी लक्ष्मी बाई मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गईं।आज उनका जीवन संधर्ष,बलिदान गाथा,प्रशासनिक क्षमता प्रेरक है हमारे लिए और उन्हें मातृशक्ति के रूप में हम अपने ह्दय में संजोयें हुए हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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Tuesday, May 29, 2012

नाथूराम विनायक गोडसे



अपने अन्तिम शब्दों में "नाथूराम विनायक गोडसे" ने कहा था: "यदि अपने देश और धर्म के प्रति भक्तिभाव रखना कोई पाप है तो मैंने वह पाप किया है और यदि यह पुण्य है तो उसके द्वारा अर्जित पुण्य पद पर मैं अपना नम्र अधिकार व्यक्त करता हूँ"

गान्धी-वध के मुकद्दमें के दौरान न्यायमूर्ति खोसला से नाथूराम ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर सुनाने की अनुमति माँगी थी और उसे यह अनुमति मिली थी। नाथूराम गोडसे का यह न्यायालयीन वक्तव्य भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया था। इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध नाथूराम गोडसे के भाई तथा गान्धी-वध के सह-अभियुक्त गोपाल गोडसे ने ६० वर्षों तक वैधानिक लडाई लड़ी और उसके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को हटा लिया तथा उस वक्तव्य के प्रकाशन की अनुमति दी।
नाथूराम गोडसे ने न्यायालय के समक्ष गान्धी-वध के जो १५० कारण बताये थे उनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं: -

(१) अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोली काण्ड (१९१९) से समस्त देशवासी आक्रोश में थे तथा चाहते थे कि इस नरसंहार के नायक जनरल डायर पर अभियोग चलाया जाये।गान्धी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से स्पष्ठ मना कर दिया।

(२) भगत सिंह व उसके साथियों के मृत्युदण्ड के निर्णय से सारा देश क्षुब्ध था व गान्धी की ओर देख रहा था,कि वह हस्तक्षेप कर इन देशभक्तों को मृत्यु से बचायें, किन्तु गान्धी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए जनसामान्य की इस माँग को अस्वीकारकर दिया।

(३) ६ मई १९४६ को समाजवादी कार्यकर्ताओं को दिये गये अपने सम्बोधन में गान्धी ने मुस्लिम लीग की हिंसा के समक्ष अपनी आहुति देने की प्रेरणा दी।

(४) मोहम्मद अली जिन्ना आदि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं के विरोध को अनदेखा करते हुए १९२१ में गान्धी ने खिलाफ़त आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की। तो भी केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के हिन्दुओं की मारकाट की जिसमें लगभग १५०० हिन्दू मारे गये व २००० से अधिक को मुसलमान बना लिया गया। गान्धी ने इस हिंसा का विरोध नहीं किया, वरन् खुदा के बहादुर बन्दों की बहादुरी के रूप में वर्णन किया।

(५) १९२६ में आर्य समाज द्वारा चलाए गए शुद्धि आन्दोलन में लगे स्वामी श्रद्धानन्द की अब्दुल रशीद नामक मुस्लिम युवक ने हत्या कर दी, इसकी प्रतिक्रियास्वर गान्धी ने अब्दुल रशीद को अपना भाई कह कर उसके इस कृत्य को उचित ठहराया व शुद्धि आन्दोलन को अनर्गल राष्ट्र-विरोधी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये अहितकारी घोषित किया।

(६) गान्धी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोबिन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा।

(७) गान्धी ने जहाँ एक ओर कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह को कश्मीर मुस्लिम बहुल होने से शासन छोड़ने व काशी जाकर प्रायश्चित करने का परामर्श दिया, वहीं दूसरी ओर हैदराबाद के निज़ाम के शासन का हिन्दू बहुल हैदराबाद में समर्थन किया।

(८) यह गान्धी ही थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को कायदे-आज़म की उपाधि दी।

(९) कांग्रेस के ध्वज निर्धारण के लिये बनी समिति (१९३१) ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र पर निर्णय लिया किन्तु गान्धी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।

(१०) कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से कॉंग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गान्धी पट्टाभि सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे, अत: सुभाष बाबू ने निरन्तर विरोध व असहयोग के कारण पद त्याग दिया।

(११) लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से चुनाव सम्पन्न हुआ किन्तु गान्धी की जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया।

(१२) १४-१५ १९४७ जून को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, किन्तु गान्धी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि उन्होंने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा।

(१३) जवाहरलाल की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल ने सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया, किन्तु गान्धी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे; ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और १३ जनवरी १९४८ को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।

(१४) पाकिस्तान से आये विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली तो गान्धी ने उन उजड़े हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।

(१५) २२ अक्तूबर १९४७ को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, उससे पूर्व माउण्टबैटन ने भारत सरकार से पाकिस्तान सरकार को ५५ करोड़ रुपये की राशि देने का परामर्श दिया था। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण के दृष्टिगत यह राशि देने को टालने का निर्णय लिया किन्तु गान्धी ने उसी समय यह राशि तुरन्त दिलवाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप यह राशि पाकिस्तान को भारत के हितों के विपरीत दे दी गयी।

गाँधी अहिंसा अपनाने को तो कहते थे पर सिर्फ हिन्दुओ से उनके इन्ही दोहरे मापदंडो के कारन दुखी होकर "नाथूराम विनायक गोडसे" ने उनकी हिंसात्मक म्रत्यु कर दी
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एक देशभक्त की रोमांचक गाथा


एक देशभक्त की रोमांचक गाथा- जिन्होंने आजाद भारत में भी जेल काटी

१९४७ का भारत आज का भारत नहीं था अपितु विदेशी अंग्रेजों की गुलामी के तले भारत के वासी बंधुत्व का जीवन जीने को मजबूर थे. सामान्य लोगों में तो जन आक्रोश था ही फौज के साधारण सैनिकों में भी असंतोष धीरे धीरे पनप रहा था. २२ अप्रैल १९३० को दोपहर के समय पेशावर के परेड मैदान में समक्ष सभी जमा सैनिकों के समक्ष अंग्रेज अधिकारी ने आकर कहाँ की हमे अभी पेशावर शहर में ब्रिगाड़े ड्यूटी के लिए जाना होगा. पेशावर शहर में ९७ % मुस्लमान हैं और वे अल्पसंख्यक हिंदुयों पर अत्याचार कर रहे हैं. गढ़वाली सेना को पेशावार जाकर अमन चैन कायम करना होगा. यदि जरुरत पड़ी तो मुसलमानों पर गोली भी चलानी होगी. आज़ादी के संघर्ष को खत्म करने के लिए , उसे मज़हबी रंग देने के लिए अंग्रेजों ने एक निति बनाई की जिन इलाकों में मुसलमान ज्यादा होते तो उनमे हिन्दू सैनिकों की तैनाती करते और जिन इलाकों में हिन्दू ज्यादा होते तो उनमें मुसलमान सैनिकों की तैनाती करते थे. चन्द्र सिंह गढ़वाली अंग्रेजों की इस कूटनीति को समझ गए. उन्होंने अपने सैनिकों से कहाँ “ब्रिटिश सैनिक कांग्रेस के आन्दोलन को कुचलना चाहते हैं.क्या गढ़वाली सैनिक गोली चलने के लिए तैयार हैं? ” पास खड़े सबी सैनिकों ने कहाँ की कदापि नहीं हम अपने निहत्थे भाइयों पर कभी गोली नहीं चलायेंगे.

अंग्रेज सरकार ने सैनिकों के बैरकों पर नीति से चिपकाया हुआ था की जो भी फौजी बगावत करेगा उसे यह सजा दी जाएगी

१. उसे गोली से उदा दिया जायेगा

२. उसे फाँसी दे दी जाएगी

३. खती में चूना भरकर उसमें बागी सिपाही को खड़ा किया जायेगा और पानी डालकर जिन्दा ही जला दिया जायेगा

४. बागी सैनिकों को कुत्तों से नुचवा दिया जायेगा

५. उसकी सब जमीन जायदाद छिनकर उसे देश से निकला दे दिया जायेगा

इस सख्त नियम के होने के बावजूद गड्वाली सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ न देने का मन बना लिया .

पेशावर के किस्सा खानी बाज़ार में २० हज़ार के करीब निहत्थे आन्दोलनकारियों की भीड़ विदेशी शराब और विलायती कपड़ों की दुकानों पर धरना देने के लिए आये थे.एक गोरा सिपाही बड़ी तेज़ी से मोटर साइकिल पर भीड़ के बीच से निकलने लगा जिससे कई व्यक्तियों को चोटे आई.भीड़ ने उत्तेजित होकर मोटर साइकिल में आग लगा दी जिससे गोरा सिपाही घायल हो गया. अंग्रेज अधिकारी ने उत्तेजित होकर कहाँ गढ़वाली थ्री रौंद फायर.अंग्रेज अधिकारी के आदेश के विरुद्ध चन्द्र सिंह गढ़वाली की आवाज़ उठी. गढ़वाली सीज फायर!

सभी गड्वाली सैनिकों ने हथियार भूमि पर रख दी. सभी सैनिकों को बंदी बनाकर वापिस बैरकों में लाया गया. सभी सैनिकों ने अपना इस्तीफा दे दिया और कारन बताया की हम हिन्दूस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की सुरक्षा के लिए भारती हुए हैं न की निहत्थी जनता पर गोलियां चलने के लिए.१३ जून १९३० को एबटाबाद मिलिटरी कोर्ट में कोर्ट मार्शल में हवलदार मेजर चन्द्र सिंह को आजीवन कारावास , सारी जायदाद जब्त की सजा सुनाई गयी.७ सैनिक सरकारी गवाह बनकार छुट गए. बाकी ६० में से ४३ सैनिकों की नौकरी, जमीन जायदाद जब्त कर ली गयी. चन्द्र सिंह २६ अक्टूबर १९४१ को ११ साल ८ महीने की कैद काटकर ही छुटे. १९४२ के भारत छोड़ो के आन्दोलन में फिर से जुड़ गए. फिर सात साल की सजा इस केस में भी मिली.अंतत २२ अक्टूबर १९४६ को गढ़वाल वापिस लौटे. १६ साल की नौकरी के बदले मिली मात्र ३० रुपये पेंशन जिसे उन्होंने मना कर दिया और जमीन जायदाद पहले ही जब्त हो चुकी थी. अपने बाकि साथियों को सम्मानजनक पेंशन दिलवाने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे.इस अहिंसक सिपाही के पवित्र आन्दोलन को अहिंसा के पुजारी गाँधी ने बागी कहकर उनकी आलोचना करी और आज़ादी के बाद उन्हें स्थानीय चुनावों में इसलिए खड़ा नहीं होने दिया गया क्यूंकि वे फौजी कानून में सजाफ्ता थे. १९६२ में नेहरु ने उनसे कहाँ बड़े भाई आप पेंशन क्यूँ नहीं लेते. चन्द्र सिंह ने कहाँ मैंने जो कुछ भी किया पेंशन के लिए नहीं बल्कि देश के लिए किया. आज आपके कांग्रेसियों की ७० और १०० रुपये पेंशन हैं जबकि मेरी ३० रुपये. नेहरु जी सर झुकाकर चुप हो गए और फिर बोले अभी जो भी मिलता हैं उसे ले लो. चन्द्र सिंह ने कहाँ की यह कंपनी रूल के अनुसार जो ३० रूपए मासिक जो आपकी सरकार देती हैं वह न देकर मुझे एक साथ ५००० रुपये दे दिए जाये जिससे में सहकारी संघ और होउसिंग ब्रांच का कर्ज चूका सकूँ. नेहरु जी ने कहाँ की आपकी पेंशन भी बढ़ा दी जाएगी और आपको ५००० रुपये भी दे दिए जायेगे.फिर चन्द्र सिंह की फाइल उत्तर प्रदेश सरकार के पास भेज दी गयी. पर सरकारे आती जाती रही उनके कोई न्याय नहीं मिला. मिली तो आजाद भारत में एक साल की सजा.

श्री शैलन्द्र ने पांचजन्य के स्वदेशी अंक में १६ अगस्त १९९२ में चन्द्र सिंह गढ़वाली से हुई अपनी भेंट वार्ता का वर्णन करते हुए लिखा हैं – मैंने पुछा – इस आज़ादी का श्रेय फिर भी कांग्रेस लेती हैं? चन्द्र सिंह उखड़ गए. गुस्से में कहाँ – यह कोरा झूठ हैं. मैं पूछता हूँ की ग़दर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम.एन.एच., रास बिहारी बोस, राजा महेंदर प्रताप, कामागाटागारू कांड, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई कोर्ट मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए हैं, चोरा- चौरी कांड और नाविक विद्रोह क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? लाहौर कांड, चटगांव शस्त्रागार कांड, मद्रास बम केस, ऊटी कांड, काकोरी कांड, दिल्ली असेम्बली बम कांड , क्या यह सब कांग्रेसियों ने किये थे.हमारे पेशावर कांड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अत: कांग्रेस का यह कहना की स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ हैं. कहते कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्र सिंह जी उत्तेजित हो उठे थे. फिर बोले- कांग्रेस के इन नेतायों ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझोता किया, जिसके तहत भारत को ब्रिटेन की तरफ जो १८ अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापिस लेने की बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन के खातों में डाल दिया गया. साथ ही भारत को ब्रिटिश कुम्बे (commonwealth) में रखने को मंजूर किया गया और अगले ३० साल तक नेताजी सुभाष चंद्रबोस की आजाद हिंद सेना को गैर क़ानूनी करार दे दिया गया. मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा की अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नहीं की, की तो क्रांतिकारियों ने ही. हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न की कांग्रेसी नेता. सहारनपुर-मेरठ- बनारस- गवालियर- पूना-पेशावर सब कांड क्रांतिकारियों से ही सम्बन्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं.

१ अक्टूबर १९७९ को ८८ वर्ष की आयु में महान क्रांतिकारी चन्द्र सिंह गढ़वाली का स्वर्गवास अत्यंत विषम स्थितियों में हुआ.
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