Wednesday, June 13, 2012
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई
19 नवम्बर 1835 को मोरोपंत व भागीरथीबाई की संतान रूप में एक बालिका ने जन्म लिया। काशी में जन्मी इस बालिका का नाम मणिकर्णिका रखा गया। प्यार से इस बालिका को सभी मनु पुकारने लगे। मोरोपंत जी सतारा जिले के वाई गाँव में चिमाजी आप्पा के यहाँ नौकरी करते थे। चिमाजी आप्पा पूना के पेशवा बाजीराव के भाई थे। सन्1818 में अंग्रेजों के पूना कब्जे के पश्चात् बाजीराव पेशवा बिठूर-कानपुर आ गये ।चिमाजी आप्पा के देहान्त के पश्चात् मोरोपंत,बाजीराव पेशवा के यहाँ बिठूर आ गये। बाजीराव के दत्तक नानासाहब के साथ मनु ने बचपन में ही शस्त्र विद्या व घुड़सवारी का प्रशिक्षण ले लिया था। बाजीराव मनु को छबीली कहते थे। बाजीराव ने ही आठ वर्षीया मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से कराया था। अब मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई हो गई ।
गंगाधर राव के पूर्वजों को झाँसी का राज्य महाराजा छत्रसाल से उपहार रूप में प्राप्त हुआ था। सन 1851को सोलह वर्षीया रानी लक्ष्मीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। कुछ ही दिनों पश्चात् यह नवजात शिशु मृत्यु के आगोश में समा गया। विधाता के इस फैसले को गंगाधर राव सह न सके और वे बीमार पड़ गये। गंगाधर राव ने बीमारी की परिस्थिति को समझकर अपने सम्बन्धी वासुदेवराव के पुत्र आनन्द को गोद लेकर उसका नाम दामोदर राव रख दिया। 21नवम्बर 1853 को गंगाधर राव का स्वर्गवास हो गया। अंग्रेज तो मानो इसी दिन की प्रतीक्षा ही कर रहे थे,उन्होने दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी रूप में अस्वीकार कर दिया और गंगाधर राव की लाखों की सम्पत्ति को अपने खज़ाने में जमा कर लिया। 7मार्च,1857 को शासन व्यवस्था के लिए अंग्रेज प्रतिनिधि एलिस को नियुक्त करके झाँसी को अंग्रेजी हुकूमत में शामिल कर लिया। अपमानित करते हुए वायसराय डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई से किला खाली करवा लिया और 5000रू मासिक पेंशन बहाल कर दी। रानी को पारम्परिक केशवपन संस्कार के लिए काशी जाने की इजाजत नही दी गई। दामोदर राव के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए जमा दस लाख रूपयों में से बडी मुश्किल से एक लाख रूपये,एक व्यापारी की जमानत से मिले।
अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार व जुल्म का प्रतिकार लेने के उद्देश्य से रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी युद्ध की तैयारी प्रारम्भ कर दी। स्त्री गुप्तचरों की टोली बना,अंग्रेज छावनियों से गुप्त समाचार लाने की जिम्मेदारी दी। स्त्री-सैनिकों में वृद्धि की। तात्या टोपे ने सम्पूर्ण भारत में चलाई जा रही क्रान्ति की योजनाओं से रानी लक्ष्मीबाई को अवगत कराया। रानी को मानो मन की मुराद मिल गई। 31मई, 1857 का दिन स्वतन्त्रता-संग्राम के उद्घोश के लिए निर्धारित किया गया था। परन्तु मेरठ छावनी के 85 वीरों ने चर्बी वाले कारतूसों के इस्तेमाल से मनाही कर दी। वे जेल में डाल दिये गये थे। 10 मई1857 को घुड़सवार और पैदल सेना ने जाकर जेल तोड़ दी, अपने साथियों को छुड़ा लिया,अफसरो के घरों को फूक डाला। जिस यूरोपीय को पकड़ पाये,उसे मार डाले और दिल्ली की ओर चढ़ाई कर दी। यह घटना पूरे भारत में आग की तरह फैल गई। सम्पूर्ण उत्तर-भारत में मई माह में ही क्रान्ति की लपटें अंग्रेजों को दहलाने लगी।
5जून1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्टार फोर्ट नामक छोटे से किले पर सैनिकों ने हमला कर लूट लिया। झाॅंसी में अंग्रेज अफसरों के बंग्ले जला दिये गये। अंग्रेज अपनी स्त्रियों व बच्चों को रानी के पास महल में शरण हेतु ले कर आ गये। धन्य है-वो नारी-वीरांगना,जिसने अंग्रेजों द्वारा अत्याचारित होने के बावजूद राजधर्म व मानवता धर्म का त्याज्य नहीं किया। बाद में ये अंग्रेज परिवार किले में जा बसे। वहाॅं भी भूख-प्यास से तड़पते परिवारों के लिए रानी ने भोजन भिजवाया। किले की लड़ाई में अंग्रेज अधिकारी गार्डन मारा गया तथा रानी के रिसालदार काले खाॅं ने किला फतह किया। इसके बाद टीकमगढ़ के दीवान नत्थू खाॅं ने अंग्रेजों के इशारे पर बीस हजार सैनिकों के साथ झाॅंसी पर आक्रमण किया। रानी ने उसे भी परास्त किया ।रानी लक्ष्मीबाई ने धैर्य,साहस को संजोकर और न्यायपूर्वक राज्य को चलाना प्रारम्भ किया। सैन्य संगठन को फिर से सुदृढ़ किया।धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की चहल पहल प्रारम्भ हो गई।रानी की सेना में दस हजार बंुदेले,अफगान और असंतुष्ट अंग्रेज थे।
चार सौ घुड़सवारों से सुसज्जित सेना के सेनापति जवाहरसिंह बुन्देला तथा दुर्गा दल नामक स्त्री सैन्य दल की प्रमुख वीरांगना झलकारी बाई थीं।गोलंदाज गुलाम गौस के निर्देशन में तोपखाना था,जिसमें महिलाओं को भी तोप चलाने का विशेष प्रशिक्षण दिया गया था।वाणपुर के राजा मर्दन सिंह,शाह गढ़ के बख्त अली ने रानी को पर्याप्त सहायता दी।दस एक माह बाद ह्यरोज और बिटलाक ने अंग्रेजी फौज लेकर रायगढ़,चंदेरी,सागर,वाणपुर आदि को जीतते हुए 23मार्च,1858 को झांसी किले को घेर लिया।तात्या टोपे कालपी से रानी की सहायता के लिए निकले परन्तु अंग्रेजों को रानी के गद्दारों से इसकी भनक मिल गई एवं अंग्रेजों ने रास्ते में तात्या टोपे की सेना पर आक्रमण कर दिया।झांसी किले के चारों प्रवेश दार पर कुशल तोपचियों की तैनाती थी।अंग्रेजों ने ओरक्षा प्रवेश दार पर नियुक्त दुल्हाजू को,पीरबख्श के हाथों रिश्वत देकर,गद्दारी के लिए तैयार कर लिया।उसने अपना प्रवेश दार खोल दिया।
उन्नाव प्रवेश दार रानी की प्रिय सहेली तथा दुर्गा दल की प्रमुख झलकारी बाई का पति पूरण सिंह तैनात था।अंग्रेजों ने किले में प्रवेश करते ही उसे मौत के घाट उतार दिया।पति की मृत्यु का शोक करने के बजाए वीरांगना झलकारी बाई ने कूटनीतिक चाल चली।रानी लक्ष्मी बाई को दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ साधारण वेष में बाहर निकाला तथा स्वयं रानी का रूप धारण कर साक्षात चण्डी का अवतार बन गई।झलकारी बाई ने अब अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया था अंग्रेजों को अधिकतम समय तक स्वयं में उलझाये रखना जिससे कि रानी सकुशल कालपी पहुॅंच जायें।एक बार फिर दुल्हाजू ने गद्दारी की,उसने अंग्रेजों को हकीकत बता दी।अब अंग्रेजों ने रानी का पीछा करना प्रारम्भ किया।झांसी में पन्द्रह हजार लोगों को अंग्रेजों ने मार डाला।करोड़ों की सम्पत्ति लूटी।सत्रह दिन तक चले इस युद्ध में झांसी तबाह हो गया।
इघर रानी कालपी पहुची।वहां राव साहब पेशवा और तात्या टोपे ने उनका स्वागत किया।कालपी से ये लोग ग्वालियर आ गये।जनता व सेना ने राव साहब पेशवा का राजतिलक किया तथा रानी युद्ध की तैयारी में आस पास के ठिकानों का भ्रमण करने लगी।ग्वालियर के सिंधिया राजघराने ने अंग्रेजों के आगे घुटने टेक दिये।ह्यूरोज विशाल सेना लेकर ग्वालियर आ धमका।मुरार में उसकी टक्कर तात्या टोपे से हुई।भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो चुका था।18जून,1858 का वो दिन भी आ गया जिस दिन विधाता ने रानी लक्ष्मी बाई की शहादत की तारीख तय कर रखी थी।काशी और सुन्दर नाम की विश्वस्त सहेलियों के साथ रानी चारों तरफ से अंग्रेजों से घिर गई थी।रानी की तलवार बाजी से हार कर अंग्रेजों ने तोपों का मुंह खोल दिया।
रानी के सैनिक मारे गये,घोड़े की भी एक टांग टूट गई।रानी दूसरे घोड़े पर सवार होकर दोनो हाथों से तलवार चलाती हुई,मुंह में घोड़े की रस्सी दबाये अंग्रेजों को चीरते हुए निकलने में कामयाब हो गई।रास्ते में बड़ा नाला था,घोड़ा नया होने के कारण बीच में ही फंस गया।अंग्रेजों ने रानी पर गोलियां बरसानी प्रारम्भ कर दी।गोली से घायल रानी के पीछे सिर पर अंग्रेज ने तलवार से वार किया।रानी इस समय कालस्वरूपा हरे गई थी।बुरी तरह घायल रानी ने दर्जन भर अंग्रेज मार डाले।अंग्रेज पीछे हटे और लड़ते लड़ते रानी लक्ष्मी बाई मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गईं।आज उनका जीवन संधर्ष,बलिदान गाथा,प्रशासनिक क्षमता प्रेरक है हमारे लिए और उन्हें मातृशक्ति के रूप में हम अपने ह्दय में संजोयें हुए हम उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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